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Tuesday, November 27, 2012

बोल सुआ बोल



शहतूती होठों से/रसियाते बोल
कहां तलाशूं
बोल सुआ बो।

श्‍ब्‍दों का व्‍यापार यहां
महाजनी संस्‍कृति है
पुरखों की भाषा यहां
गूंगी बहरी श्रुति है।

कड़ुवाए नैन-बैन/सम्‍मोहन
गुम हो गए
अलगोजे के बोल।
फूल, ति‍तलियां, भौंरे,
गंध शिरीष रिझियाती
दूर तक कहीं नहीं
धानी चुनरिया लहराती।

बरगत कहे पीपल से
गांव की पीड़ा
बजते नहीं अब बधावे के ढोल।
शीश धरी भारी
कर्ज की गठरिया
पूर पड़ती नहीं
पांव बड़े, छोटी चदरिया।

श्रम बंधक है
उड़े तो कैसे
मुक्‍त गगन में पंख खोल
बन्‍द मन के पेट खोल
स्‍वर में मिश्री घोले
सबको राम-राम बोल
बोल सुआ बोल।

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Monday, November 26, 2012

व्‍यवहारों को क्‍या हो गया


मुरझा गए सदाबहार, चिनारों को क्‍या हो गया?
खिंजा में बदल गई, यारों! बहारों को क्‍या हो गया?
शकुनी शतरंजी बिसात, सियाती उलटबासियां-
प्रदूषित इन सत्‍ता के गलियारों को क्‍या हो गया?
नाज़ था हमको जिस यारी पे क्‍यूं निगाहें फेरली,
गरदिशे लम्‍हों में मेरे यारों को क्‍या हो गया?
मुँह में राम बगल में छुरी कि चेहरे पे चेहरे,
वो खुशबू, वो प्‍यार कहां, व्‍यवहारों को क्‍या हो गया?
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कोई बात तो हो

ऐसे में कैसे करें बात, कोई बात तो हो।
बीते तो कैसे बीते रात, कोई बात तो हो।।
उमस भरी गुमसुम-सी ठहरी कहीं हवा है,
लरजे तो सही कि पीपल-पात, कोई बात तो हो।
दूरियां भी नाप लेंगे हम डगमगाते पांव से,
अधर हो धरी यदि सौगात, कोई बात तो हो।
आंसुओं से करलें हम सुलह भी यदि हाथ में हो-
किसी के मेहन्‍दी वाले हाथ, कोई बात तो हो।
बादल हो या बहकाहुआ शराबी-सा मौसम हो,
रिमझिम सरगम हो कि बरसात, कोई बात तो हो।
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किसी कारण वश इससे आगे पोस्‍ट डिलीट होने के कारण पुन: अपलोड कर रहा हूं। आशा करता हूं कि पूर्व की भांति यथा सहयोग प्रदान करेंगे।

Monday, November 19, 2012

सांपों के शहर में


चमगादड़ों के योग, फिर सांपों के शहर में।
फैले हैं ज़हर-रोग, फिर सांपों के शहर में।।
धूप के टुकड़े बिखेरे, आग मुट्ठी में भरे,
लौटे हैं कौन लोग, फिर सांपों के शहर में।
सीढि़यां टूटी हुई औ' रस्सियों में बल,
कैसे करें उपयोग, फिर सांपों के शहर में।
ओढ़े हुए हैं कांच वो पत्‍थरों के घर में,
कैसे विचित्र सहयोग, फिर सांपों के शहर में।
बीन भी है, सपेरे भी, मंत्र मगर झूंठे हैं,
कैसे हो संजोग, फिर सांपों के शहर में।
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Friday, November 16, 2012

जिन्‍दगी क्‍या है....



आदमी इक खबर है सिर्फ पत्र का फटा हुआ कोना।
जिन्‍दगी यह है कि सिर्फ ढाक के तीन पात का दौना।।
धूप छांव से खेला करता हर पल क्षण आँख मिचौली,
जिजीविषाओं की डेर बंधा है यह सिर्फ एक खिलौना।
नेह नहीं आँख से कामवासनाएं पाप प्रसवती,
रक्‍त रंजित सदी का आदमी हो गया कितना बौना।
पीठ पे कर्ज लदा जिसके कि मुँह में पगार की लगाम,
कतरा-कतरा खूं का बहता वन पसीना मगर अलौना।
जंगल में बहैलिया जब डाले हो घेरा ''यादवेन्‍द्र''
बचेगा कैसे आखेट में डरा-डरा सा मृग छौना।

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Wednesday, November 14, 2012

भीड़ का दस्‍तूर




छिलता है शरीर रोज भीड़ का दस्‍तूर है।

बिकता है ज़मीर रोज, भीड़ का दस्‍तूर।।

बिखरता रहा सूरज टूट के किरच-किरच हो,

चूभते रहे तीर रोज, भीड़ का दस्‍तूर है।

घर की तलाश में मिली यंत्रणा आँखों को,

चुकता रहा नीर रोज, भीड़ का दस्‍तूर है।

वृक्ष तो है कुल्‍हाडि़यों से सहमा-सहमा सा-

आता है समीर रोज, भीड़ का दस्‍तूर है।

दिन ढले शाम होती है कि आलपिनों की चुभन

टीसती है पीर रोज, भीड़ का दस्‍तूर है।

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Monday, November 12, 2012

आँखों- आँखों में.....




टूटे सपन की हिकरकिरी पथराती है आँखों में।

याद कोई भूली सी ग़ज़ल गाती है आँखों में।।

स्‍वप्‍न में हूँ या कि जागा हुआ, चलता न कुछ पता,

रूहे-दिल की तनहाई घुमड़ आती है आँखों में।

कमसिन डाल पे उतर के धूप जब पर सुखाती है,

पत्‍तों की पलक पे ओस जगमगाती है आँखों में।

घंटियां मंदिर की बजती तब संवलाई शाम में,

वो बिल्‍लौरी तस्‍वीर उभर आती है आँखों में।

हर दिन तीर्थ-सा लागे, हर पल-क्षण पूरनमासी,

मोहन की राधा जब से रास रचाती है आँखों में।

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