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Monday, August 27, 2012

आदमी है सूखी नहर




यहां कोई किसी को नहीं पहचानता
यह अजनबी शहर, लोगों।
रिश्‍वतों पर खड़े गगनचुम्‍भी भवन यहां
होती नहीं सहर, लोगों ।

आदमी की शक्‍ल में दौड़ती भीड़
मगर आदमी नहीं कहीं है,
आंख में न स्‍नेह का पानी यहां
आदमी है सूखी नहर लोगों । 

नारों के कलीदें है बेशुमार 
हमें खाने को लाठी-गोली,
वोट की खाली प्‍यालियों में
भर-भर पीते हैं हम जहर, लोगों ।

मरक्‍यूरी रोशनी के नीचे
फुटपाथ पर दम तोड़ती जिन्‍दगी,
जगाने को मगर ईमान
मंदिरों में रोज बजते गजर, लोगों ।

पढ़ते ही रहे सिर्फ
समस्‍याओं का समीकरण
हो पाया न हल,
समेट कर अपनी जाजम
बना चला दिगम्‍बर यह दिसम्‍बर लोगों ।
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