यहां कोई किसी को नहीं
पहचानता
यह अजनबी शहर,
लोगों।
रिश्वतों पर खड़े
गगनचुम्भी भवन यहां
होती नहीं सहर,
लोगों ।
आदमी की शक्ल में
दौड़ती भीड़
मगर आदमी नहीं कहीं
है,
आंख में न स्नेह का
पानी यहां
आदमी है सूखी नहर
लोगों ।
नारों के कलीदें है
बेशुमार
हमें खाने को लाठी-गोली,
वोट की खाली प्यालियों
में
भर-भर पीते हैं हम
जहर, लोगों ।
मरक्यूरी रोशनी के
नीचे
फुटपाथ पर दम तोड़ती
जिन्दगी,
जगाने को मगर ईमान
मंदिरों में रोज
बजते गजर, लोगों ।
पढ़ते ही रहे सिर्फ
समस्याओं का समीकरण
हो पाया न हल,
समेट कर अपनी जाजम
बना चला दिगम्बर यह
दिसम्बर लोगों ।
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