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Sunday, January 13, 2013

नेहर आंगन लगे बिराने




नई दुल्‍हनिया
खड़ी अटरिया
निरख नम-नयन काजल
लगी हिलहाने।
सुलगती धूप
अंचरा छुपा/बदरिया
शीतल झरी से
भिजो गई चुनरिया
माटी को
सौंधी/बांट रही
घर-घर पुरवा
जा बैठी
सिरहाने।
दादुर, मोर, पपीहा/ढाई आखर
प्रेम के रहे बांच
तन-मन-प्राणों में
ठंडी-ठंडी आंच
अंकुरित दूर्वा सी
नचते मोर-पंखों सी
कसमकस
लगी नस-नस पिराने।
सुनी सांवनी रातें
बिजुरिया खेले/आंच मिचोली
जबरन घुस चौबारे
फुहारे करें ठिठोली
नेहर-आंगन
सखी सहेलियां
अपने लगे
अब बिराने।
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Friday, January 11, 2013

गज़ल




थूक कर चाटते हैं,
कितने लोग विचित्र हो गए।
गि‍रगिट की तरह बदलते रंग,
कैसे चरित्र हो गए।
जलती चिताओं की,
आग पर सेकते रोटियां ये
बाजीगार, बटमार, रहजन,
कैसे मित्र हो गए।
इस दौर में देखो हर ऊसूल हैं,
कागजी-फूल,
खुशबू के भी खतरे हैं,
सब नकली, इत्र हो गए।
रातों के अपराध से,
दहशत ज़दा है चॉंदनी
छूने से उनके ख्‍वाब,
चॉंद के अपवित्र हो गए।
सब गवाह है,
सब अपराधी यहां मुन्सिफ भी, यारों।
कि इजलास में नाकारा,
''बापू'' के चित्र हो गए।
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Thursday, January 10, 2013

बाल की खाल


निकाल रहे थे, बाल की खाल,
है न कमाल।
पालते रहे थे, आस्‍तीन में सांप,
अभिजात्‍य है, लेकिन करते रहे,
पाप, पाप, महापाप
एक वो है, मां के सपूत,
सीमाओं पर कर रहे हैं
मां का ऊँचा भाल
एक ये है कि
निकाल रहे है बाल की खाल।
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Wednesday, January 9, 2013

स्‍वर्ण-मृग का लालच




वो खुशबू कहां नागफनियों में,
जो है तुलसी की मंजरियों में।
सदाचार, सत्‍यम्-शिवम्-सुन्‍दरम्
है कहां विज्ञपित किन्‍नरियों में।
अनावृत परिधानों में कहां वो,
लावण्‍य जो लहंगा-चुनरियों में।
सखी, पतित-पावनी कलकल गंगा,
हंसती कि तुम्‍हारी चूडि़यों में।
भारतीय संस्‍कृति का संगीत,
रुनझुंन तुम्‍हारी पैजनियों में।
रंगों के कि पतंगों के उत्‍सव,
यहां बच्‍चों की किलकारियों में।
स्‍वर्ण-मृग का लालच कहीं तुम्‍हें,
ले न जाए अंधियारी गलियों में।
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