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Thursday, August 30, 2012

नई यात्रा पर चलें


मिलते थे जो कि कल तक बांह पसार गले।
चटक गए रिश्‍ते, रिश्‍तों पे खंजर चले।।

उठा जो आरजूओं का धुंआ बस्‍ती से,
खूं का कतरा कतरा यह अश्‍कों में ढले।

जिन्‍दगी सारी हुई यहां पे धुआं-धुआं,
ख्‍यालों-ख्‍वाबों के पेकर हैं धुन्‍धले।

सच तो गूंगा यहां छल बहुत बातूनी,
है छलावों के पग-पग रेशमी जलजले।

कि हुक्‍म वही हुक्‍मरान वही है प्‍यादे,
वही है चेहरे, सिर्फ नाम-पट्ट बदले।

बदलते मौसम के मानिन्‍द इनके उसूल,
है रोज मल्‍बूस बदलने के सिलसिले।

अन्‍धेरी गली बस्तियों में, यारों!
कब अलस्‍सुबह के खुश्‍नुमा मन्‍जर खिलें?

भूल के सारे शिकवे-शिकायत, हमदम!
फिर सूरज की तरह नई यात्रा पे चलें।
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Wednesday, August 29, 2012

फूलों की बहारों को रोता है बुलबुल


शबे-महताब से रोशन है उनका मुआ दिल।
बैठे हैं हम यों करके चिराग अपने गुल।।

मुफलिसी में उगाते हम आंसुओं की सफल,
सुरा-साकी से पुरनूर है उनकी महफिल।

लहू से बनाया जिन्‍होंने अपना राज-पथ,
चल के उस पे कुछ सिरफिर पा गए मंजिल ।

हाल पे अवाम के उन्‍हें नहीं कुछ मलाल,
रहबर हमारे वो पड़े हैं हो के गाफिल ।

खुशबू न नूर गुलाबों का अब अल्‍फाज में,
सियासत की मुलाजिम हो गई कि आज गजल ।

बहारें कहां, चमन कैसे कि कफस में बंद,
फूलों की बहारों को रोता है बुलबुल ।
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Tuesday, August 28, 2012

चुल्‍लू भर छांव को ......


तरस गए कि चुल्‍लू भर छावं को आंगन में,
आग लगी हे सरस हवाओं के दामन में।

किरणों के दंश सहे, प्‍यार की इक बूंद को-
रटते-रटते पिव-पिव कजराए सावन में ।

भीतर का अमूर्त मन, इतना निरर्थक,
गड-मड हुई सतरंगी-उमंगे यौवन में ।

आदमी आदमी में, बांट के दूरियां ये-
मंदिर उलझाते रहे, पावन-अपावन में।

वर्षों से पाले, परिचय के भ्रम टूट गए,

कैसे पहिचान करें, रहजन ओ पाहुन में ।

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Monday, August 27, 2012

आदमी है सूखी नहर




यहां कोई किसी को नहीं पहचानता
यह अजनबी शहर, लोगों।
रिश्‍वतों पर खड़े गगनचुम्‍भी भवन यहां
होती नहीं सहर, लोगों ।

आदमी की शक्‍ल में दौड़ती भीड़
मगर आदमी नहीं कहीं है,
आंख में न स्‍नेह का पानी यहां
आदमी है सूखी नहर लोगों । 

नारों के कलीदें है बेशुमार 
हमें खाने को लाठी-गोली,
वोट की खाली प्‍यालियों में
भर-भर पीते हैं हम जहर, लोगों ।

मरक्‍यूरी रोशनी के नीचे
फुटपाथ पर दम तोड़ती जिन्‍दगी,
जगाने को मगर ईमान
मंदिरों में रोज बजते गजर, लोगों ।

पढ़ते ही रहे सिर्फ
समस्‍याओं का समीकरण
हो पाया न हल,
समेट कर अपनी जाजम
बना चला दिगम्‍बर यह दिसम्‍बर लोगों ।
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Sunday, August 26, 2012

शरद्


कांसों के चंवर डुलाती
सन-बिच्छिया छुम छुमकाती
नीलाभ गगन से धरती पर, उतरी शरद् कपूरी।

उलझा था जो कहीं
श्‍याम घटा के सघन केश में
निकला चांद
धुला-धुला सा दूधिया परिवेश में

करे रसवंती अभिषेक
ढुलते दुग्‍ध-कलश अनेक
लिपे पुते आंगनों नाचती इच्‍छाएं मयूरी।

अल्‍हड़ यौवना सी
पकी-पकी बाजरे की फसल
अलगोजे की धुन में
बुन रही ज्‍यूं सपनों की गजल

निरख जवानी खेल की
महकी खुशबू रेत की,
मुसकायी क्‍वार के धान-सी, बरसों की मजबूरी।

जादू सा है छाया
हर भवन में डोल गई गन्‍ध
रोम-रोम में पुलक
स्‍वरित है, प्रणय गीतों के छन्‍द

रूपायित हुआ मन गेह
गुलाब सी गंधायित देह
दीप जलाती तुलसी बिरवे नीचे, शाम सिन्‍दूरी।
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Saturday, August 25, 2012

अकाल के नाम




कैसे कैसे
काटे हैं लमहे गिनगिन,
कैसे जीएं
सब सून है पानी बिन।

अन्‍तर्मन को
खरोंचे दफ्तरी बात,
पल-पल होती
शकुनी मुंशियाना बातें,

सूरज की किरणें
चुभती तन को
फक्‍क उजले
कागज में छिपे ज्‍यों आलपिन।

ऊपर दूर आकाश में
उड़ती चीलें,
नीचे रेतीली
हथैली पे सूखी झीलें,

धरती चटकी
जैसे चूने की तगार
ऐसे ऐसे
चटकते हैं हमारे दिन।

अब भी
यहीं कहीं है जीता होरी
बिन छत काटी
पूस की रातें निगोरी,

करम जला
जनमा साथ लिए अकाल
खटकता है
मजूरी को कि ‘होरी’ छिनछिन।
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Friday, August 24, 2012

सूखा गांव



कहां ऋतु – मधुमास
रंभाते पशुओं का सूखा यह गांव।

अंचरा न बांधे
गंध फगुना-चैत
दृष्टियों में चुभे,
भूख पेट खेत।

यहां – वहां बबूल
थामे खड़े शूल
दीखती न फगुनाएं नीम की छांव।

कहां ग्राम- बाला
पागल प्राण करे,
कोकिला के गीत
कहां महुआ झरे।

हरियाये न बेंत
आंखों उड़े रेत
मेंहदी रचायी न धरती के पांव।

झीलों के दर्पन
निहारती न प्रीत,
टूटा झरनों का
पनघटों का गीत।

भींचे है अकाल

फूलों की मशाल

खेल-खलिहानों में पल रहे अभाव।

रंभाते पशुओं का सूखा यह गांव।।

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Thursday, August 23, 2012

खिले पारिजात है

बैन बैन में
नैन नैन में
कि सौगात है
नई बात है।


फूल-पात में
रक्‍त-रंग री
घोल-घोल तू
नव-अनंग री,

लाल-लाल सी
भर गुलाल री
तू जवान के
लगा भाल री,

नव-बसन्‍त में
दिग् दिगन्‍त में
आज अंगार
फूल-पात है ।

सखी, खेल यों
फागुनी फाग
उठे गूंज ज्‍यो
भैरवी राग,

चल पड़े जवां
गली-गांव से
भू द्वन्‍द् सब
एक भाव से,

नए चंग हैं
नव-उमंग है
हृदय में
खिले पारिजात है।

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Tuesday, August 21, 2012

बसंत की पाती

बसंत की पाती है
दूर्वा की स्‍लेट पर
फूल है जैसे लिखे, अक्षर किसी नाम के।


नगर-द्वार, जीवन में
फिर लौटी है मिठास,
अधरों औ आंखों से -
है छलकती मधु-प्‍यास ।

टेसू के लाल-लाल
रंग बसनों में मुदित
कोयल के बोलों पर, खुले अधर विराम के,
फूल है जैसे लिखे, अक्षर किसी नाम के ।


गीतों के पंख खुले
मकरन्‍दी छांहों में,
उदास मन झूलेगा
अमलतासी-बांहों में ।


कण-कण हो मुखरित सब-
नगर-गांव नाच रहा
उमंग है पांव में, आज बूढ़े ग्राम के ।

बसंत की पाती है दूर्वा की स्‍लेट पर
फूल है जैसे लिखे, अक्षर किसी नाम के।


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Sunday, August 19, 2012

तान दिया पाल, बसासंती-चुनरिया का



तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का।


खोल दिए वेणी-बन्‍ध
रस-क्‍यारियां भर दी गन्‍ध
मुकुलित गुच्‍छों से झूल गए
मधुवासित-फूलों के छन्‍द।

महका कौना-कौना, गांव-नगरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।।


दिग्-दिगन्‍त अमलतासी धूप
नई सरसों का मुखरित रूप
उगा है मन-दर्पण के बीच
सखि, कचंनवर्णी रूप अनूप ।

सरसा रोम-रोम से, स्‍वर बांसुरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।।


थाप पड़ी है फागुनी-चंग
कंठों में गीतों की उमंग
रस-भीगी उर्वश चूनर देह
हो गए एक बासंती-रंग।


पनघट ठलका रस, रसवंती गगरिया का,
आंचल-आंचल भीगा हर गुजरिया का,
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती चुनरिया का ।।
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Saturday, August 18, 2012

फागुन आया



लहका लहका
महका महका
बगिया का यौवन गदराया।


तितलियों की रंगीन घातें
फूलों से भंवरों की बातें
भीगा-भीगा मौसम बहका
बहका बहका
उन्‍माद भरा फागुन आया,
बगिया का यौवन गदराया।


बैठी थी चुप-सी जो परसों,
चढ़ बतियाती पीली सरसों
शहतूती शाखों से छलका
छलका छलका
मधुमास लिए मद बौराया,
बगिया का यौवन गदराया।


बिसरे-बिसरे से छन फूले
पत्‍तों की औंक में प्रन फूले
सुधियों का कगन खनका
खनका खनका
मादल का स्‍वर भर लहराया,
बगिया का यौवन गदराया।


कि, शब्‍दों में अर्थों के फूल
गमके प्राण, कस्‍तरी धूल
ऐसे में मन-दर्पण चटका
चटका चटका
रोम-रोम मधु-मत्‍त-सरसाया,
बगिया का यौवन गदराया।
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Friday, August 17, 2012

होली आई है

बजते करताल, ढोल, डफ, उमंग छाई है,
लहक उठा है यौवन कि होली आई है।


रंग सौं भरी बाहें कोमल गोरी गोरी,
रंग ले उमंग, अंग-अंग ठाढ़ी किशोरी।


बढ़ावती उमपान खुली कंचुकी की डोरी,
रस रीति से प्रीति से प्रीतम को मले रोरीं।


मन्‍द-मन्‍द संदेश पिया का बयार लाई है,
ऋतु को ऋतुराज प्रीति कुकुम बरसाई है।


गली-गली खेल रहे रस-फाग रंग डाल-डाल,
भीगी रस-प्रीति से चहुँ ओर खुशियां निहाल।


पश्यिम से प्रियतम प्रियसी को मले गुलाल,
मुरि देखत रंग सौ रांचि मुख प्रिय को बेहाल।


दौड़े ले गुलाल नर-नारी की भीड़ आई है,

प्रिय होली-होली-होली, होली आई है।

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Thursday, August 16, 2012

बासन्‍ती पवन

धर गया बासन्‍ती पवन,
कलिका-अधर पर चुम्‍बन।

नवल कुसुमित लतिकाएं,
हो मुद्रित खग-वनिताएं।

उड़ी पंख खेल नभ में,
ज्‍यों मुख स्‍वर-कविताएं।

ठुमक ठुमक रस-क्‍यारियां
ठुमके कि सुरभि के चरण।

खोल घूंघट पांखुरी-
तनिक जो हंसी बावरी,
शोर मय गया चहुंरी ओर,
फूलां के सब गांव री।

बजी नेह बांसरी सी,
पुलक से नाच उठे मन।

सुमन केसर पराग में,
शहतूती अनुराग में,
धुल गए कलुष सभी लो
फागुनी रंग-फाग में।

उड़ता अबीर-गुलाल,
आया रंगीला फागुन।
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Wednesday, August 15, 2012

शरद् किरण



रंगराई पहाडि़यों की अन्‍य गुफाओं से
उतर शरद् किरण
धरे गोरे चरण।

उतर रहे हंस
लिपे पुते आंगनों में,
बंध रहे अक्षर
अर्थ के सम्‍मोहनों में,

तन-मन-प्राण मुदित पावन ऋचाओं से
करता ज्‍यों मंत्रोच्‍चारण
मुखर रेत करण-कण।


बांसुरी प्रतीक्षा
रूप-रंग-रस-गन्‍ध धुरली,
खग-वनिताएं
खेल पंख उड़ चली,


पुर गया चौक
आढ़ी-तिरछी रेखओं से,
रंगों का अभिसिंचन
छवियों का आमंन्‍त्रण


रंगराई पहाडियों की अन्‍य गुफाओं से
उतर शरद् किरण

धरे गोरे चरण।

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Tuesday, August 14, 2012

सावन बीता जाए

ओ आकाशी बादल
सावन बीता जाए,
चुप बूंदी की पालय !

छिपे कहां विश्‍वासी,
मरू –धरती है प्‍यासी,
खिले क्‍यों न श्‍याम-घटा के
अधर-विम्‍ब पाटल !

हरियाले सोमवार
सूखे तीज-त्‍यौहार,
हाथों राची न मेंहदी,
अँजा न नयन काजल  !

डालों डले न झूले
जीवन रंग सब भूले,
प्‍यारे ढोर-ढंगर
भूले कहां जल-छागल ?

ओ आकाशी बादल
सावन बीता जाए,
चुप बूंदी की पालय !
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Monday, August 13, 2012

गांव-गैल बरखा हुलसे




सावन बरसे, भादों बरसे।
तुम बिन सजना, नयना तरसे।।

झिरमिर-झिरमिर
यह चौमासा
मन का पपीहा
फिर भी प्‍यासा।

विराजे क्‍यों परदेशी पिया,
यौवन का यह बिरवा झुलसे।
तुम बिन सजना, नयना तरसे।।

चपल चंचला,
दप-दप दमके,
बूंदें आंगन
छमछम छुमके।

रोम-रोम का बदला मौसम,
भीगी परवा-फहार परसे,
तुम बिन सजना, नयना तरसे।।

हरियाले हैं ये सोमवार,
पिया मिलन के
तीज त्‍यौहार।

कजरी गाती, मेघ मल्‍हार,
गांव-गैल यह बरखा हुलसे।
तुम बिन सजना, नयना तरसे।।
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