उसने
रक्त–मज्जा से चिन
कर
मेरे भुवन को
अपनी श्वांसों के
कर्पूर से
सुवासित कर
स्वयं गन्धहीन हो
गया।
मेरे
जीवन का अंधकार पी
अपनी सहज-सरल मुस्कानों
की पूर्णिमा दे
उसने अमावस्या का
वरण किया।
उसने खूद को मथ कर
मुझे गेहूं की
बालियों सी
छन्दमयी कविता दे
स्वयं छन्दहीन हो
गया।
अपने अलगोजे के स्वर
मेरी बांसुरी को दे
स्वयं बेसुरा हो
गया।
मैने
उसने पसीने के
समुद्र का मंथन कर
उसकी लक्ष्मी का
हरण कर
'विष्णु' पद प्राप्त
कर लिया।
वह लक्ष्मीहीन
फटेहाल-काला-कलूटा
अस्थियों का ढांचा
भर
गड्ढे में धंसी-धंसी
उनींदी आंखों से
बुझे सपनों को ले
कल उगने वाले
नए एूर्य की
प्रतीक्षा में
जी रहा है।
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