आती नहीं चेहरे पे
लोगों के मन की बात।
पत्थ्ार के हो गए
लोग, अब कहां वो जज्बात।।
मिलते भी हैं तो
मिलते हैं बेगानों की तरह,
कैसे बहके हैं लोग
कि ज्यो हों गया सन्निपात।
धुंएं के पर्दे हैं पलकों में कहां खुले वातायन,
न वो शिकवे-शिकायत है न वो प्यार की सौगात।
सावन में तरसते है लोग काले बादलों को,
फागुन में बरसती है, यारों! बे-मौसम बरसात।
उजाले की बात करती है निशा ‘’यादवेन्द्र’’
कि सूरज को ले के आगोश में सोई है रात।
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