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Tuesday, October 2, 2012

गांव-चौपाल के दिन


कहां गए वे
गांव चौपाल के दिन ?

गांव-गेल
खेत-पहाड़ से गुजरती
पगडंडियां
जा मिली शहर की सड़कों से
गबदू, पांचू
लेने लगा है होड़ अब
सिनेमा के शौकीन
शहरी लड़कों से;
स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र की नर्स की देखा-देखी
क्रीम-पाउडर का शौक पाल रही है
धूल्‍या-बाबा की नातिन।
कहां गए वे
गांव-चौपाल के दिन ?

भोलू कान्‍हा
रमजान चाचा की आंखों में
पसरा हुआ है एक भयावह रेगिस्‍तान,
चूर-चूर हो गया
आपसी पुश्‍तैनी रिश्‍तों का दर्पण
खो गई अपनी पहचान;
हर पड़ौसी की दीवार पर
चिपकी है सन्‍देहों की छिपकलियां
पूरखों से चली आ रही
भाई चारे की
एक हुक्‍का-चिलम
सब अलग-अलग हो गए;
खा गई सभी सम्‍बन्‍धों के मेमने
पंचायती राजनैतिक नरभक्षी बाघिन।
कहां गए वे
गांव-चौपाल के दिन ?

भोर में
दूध-दही
बाजरे की राबड़ी का कलेवा कर
बैलों की जोड़ी ले
खेतों को जाता
सहज-सरल किसान,
कुओं पर चलते रहट के संगीत पर
पाणत करती ग्राम-बालाएं
छूट गए, दूर बहुत दूर
पांवों से
छूटती जा रही है
पुश्‍तैनी जमीन छिन-छिन।
कहां गए वे
गांव-चौपाल के दिन ?

स्‍नेहिल
नीम, बरगदी छांव,
दूध लदी
गाय, भेड़,-बकरियों के रेवड़
अलगोजे की
थिरकती लोक-धुनें
सब सूख गए
रेत की नदी की तरह
दूध-दही की नदियां;
जाने कब लौटेगी
शिरीष की गंध लिए
सपनों की बंजारिन ?
कहां गए वे
गांव-चौपाल के दिन ?
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