सर्वाधिकार सुरक्षित

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

Click here for Myspace Layouts

Saturday, May 12, 2012

भीड


खुली भीड
बन्‍द भीड
अनियंत्रित भीड
नारों और जयकारों की भीड
देखते हैं हम सब
अधिक सभ्‍य हो गए हैं
और बर्बरता
नए बोध का काला चश्‍मा लगा
घुल गई
चुस्‍त बहुरंगी सभ्‍यता में।
नए आयाम
नए प्रतीक
नये बोध
अत्‍याधुनिक युग का आविर्भाव
नील-नीलान्‍त अन्‍तरिक्ष की
खुलती सीढियां
मगर
ऊपर से नीचे को उतरता है
एक प्रश्‍न चिन्‍ह ?
उपलब्ध्यिों की अश्रुत गोद में
महा-अभाव के महा-शून्‍य में
आणविक – प्रक्षेपास्‍त्रों से
भयभीत
विष्‍मताओं की घाटियों में
गूंजता
पूछ रहा है अपनी ही आवाज में
कि नये आयाम पर
क्‍या पाया ?

प्रिय पाठकों का आभार

प्रिय पाठकों,
यहां पर मेरे पिता द्वारा लिखित ''अशीर्ष कविताएं-1984'' में प्रकाशित संग्रह में संग्रहित कविताएं हैं, जिनका शीर्षक नहीं है। इस संग्रह की सभी कविताएं बिना शीर्षक हैं।  इनके संग्रह में मृत पडी कविताओं को बरसों बाद यहां मेरे द्वारा शीर्षक देकर  पुन: जीवन प्रदान करने का प्रयास किया है। ताकि आपको कविता पढने में आसानी हो।

मुझे आशा है कि आपको यह मेरा प्रयास पसन्‍द होगा।

-- संजय सिंह जादौन

बीत गया बरस

बीत गया बरस
बरबस।
पढते-पढते अखबारी
घटनाएं ।
सहमी-सहमी गूंगी
संध्‍याएं।
अपने को सहेजने
के प्रयास में
टूट गया थर्मस।
बीत गया बरस
बरबस।
निभाने को बनी रहीं
सौगातें
सन्‍दर्भों से कटी हुई
बातें
राह चलती लडकी का ज्‍यों
अचानक झपट गया पर्स ।
बीत गया बरस
बरबस
थक गया मन चर्चित
क्रीडाओं से
टूट गया अन्‍तस ज्‍यों
प्रसव-पीडाओं से
बांट गई ढेर से तिकोन
सरकारी नर्स।
बीत गया बरस
बरबस।