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Tuesday, October 16, 2012

सहमे हुए व़क्ष



वृक्ष
सहमे हुए हैं
कुल्‍हाडि़यों के डर से।
खुद
अपनी ही ज्‍वाला में
जल रहे हैं
पलाश,
बीमार है
पीलिया से
अमलतास,
शहतूती अहसास
चूक गए
गांव शहर से।
गीतों में
कहां अब वो
उल्‍हास,
फूलों के गांव
फागुन
बहुत है उदास,
पीडि़त है मानवता
हवाओं से
घुले जहर से।
उतर गए रंग
छूते ही
तितलियों के पांखों के,
पाला मारते ही सरसों
टूट गए
क्‍वांरे स्‍वप्‍न आंखों के,
आते-आते
लौट गईं खुशियां
गरीब के घर से।
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