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Sunday, September 30, 2012

रेत की नदी


रेत के अंधे गर्भ में
डूब गई है
मेरे गांव के पास
बहने वाली नदी ।
हांफती
ये सूखती खेजडि़यां
पानी की तलाश में
ऊपर उड़ती
चिडि़यां ।
हल करते-करते
पानी का सवाल
बूढ़ी हो चली
पूरी एक सदी।
ये आकाश में किसने
टांग दिए है
शब्‍दों के मंत्र ?
चिलचिलाती धूप
पसर रही है सर्वत्र।
यह रेतीली धूप
प्‍यास की पीठ पर
कब तक रहेगी
लदी?
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Friday, September 28, 2012

एक प्रश्‍न



सुनो !
मेरे राजनेता
सुनो!!
मेरे छोटे-से प्रश्‍न का उत्‍तर दे सकोगे ?
क्‍या
नए वर्ष
शिशिर में ठिठुरती/कोहरे में लिपटी
सुबह में,
नई आशा के साथ
राष्‍ट्र समृद्धि/ खुशहाली के लिए
गुनगुनी धूप
मस्जिद, मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च का
अभिषेक करेगी ?
भूख से बिलखते/मां की सूखी छातियों को निचोड़ते
कल के सपने के उल्‍लास में,
इन भोले मासूम बच्‍चों को
बिना किसी दुराव के
नए वर्ष में
दे सकोगे चुटकी भर मुस्‍कान ?
आंगन में खांसते/बीमार वर्तमान पर से
जवान होती आकांक्षाओं का
उठने लगा है विश्‍वास,
और
नई कृति बनाने के लिए
हर पल कुछ रचने की प्रक्रिया में जीना चाहता है
वर्तमान।
इसे आरियों से काटने का
प्रयास तो नहीं करोगे ?
दे सकोगे,
सम्‍पूर्ण खुला आकाश
वर्तमान को
नए भविष्‍य के लिए ?
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Thursday, September 27, 2012

दूर टेरती बांसुरी


मंदिर के स्‍वर्ण कलश से
सरक जाती है जब धूप,
होठों पर मुखर हो आता बरबस तुम्‍हारा नाम।
यह गोधूलि, सांझ अकेली,
श्‍यामल सी छाया मैली
चहचहाते नीड़-नीड़ में,
लौटते पक्षी भीड़ में
द्वार पर रख जाते है गुमसुम-सी बुझी-बुझी शाम।
होठों पर मुखर हो आता है बरबस तुम्‍हारा नाम।।

दृग मूंद सोती पांखुरी
दूर टेरती बांसुरी
निशा नशीली साथ न तुम
भीतर-बाहर तम, आंखें नम
तुलसी-चौरे पर टेरे कि पूजा का दीप-ललाम।
होठों पर मुखर हो आता है बरबस तुम्‍हारा नाम।।
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Wednesday, September 26, 2012

सूर्य



आंधियां
अवसादों के काले मेघ
भले
आच्‍छादित कर दें
आकाश को मगर
जो
विहग-विरूदावलियों के साथ
अन्‍धकार के सीने को चीन
धरती के अणु-अणु में
संचारित करता है
जीवन-शक्ति
वह
कभी अस्‍त नहीं होता
क्रांति का
सूर्य।
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Tuesday, September 25, 2012

भूख



बन्‍धु रे!
सड़कों,
गली-कूचों,
झुग्‍गी-झोंपडि़यों
उग आती है
सूरज डूबने के साथ
मच्‍छरों सी भिनभिनाती
जिस्‍म फरोशों की
भीड़
बू सूंघती
जिन्‍दा गोश्‍त की
और
बिकने लगती है
भूख।
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