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Monday, October 1, 2012

मरूस्‍थल की पीढ़ा



कीकर की छांव तले
हांफ रही दुपहरिया
धरती-अम्‍बर
दोनों तपे
गरम तवा-से।
जगह-जगह उग आए
गर्म रेत के पहाड़
थार के पार तक
एक घना उजाड़
बहुत भागे पीछे
आग की लपटों के
बहुत छला मृग-तृष्‍णा ने
फिर भी कंठ प्‍यासे के प्‍यासे।
बूंद-बूंद  कर पी गई
धरती के भीतर तक का पानी तावड़ी
गूंगे हुए बातूनी पनघट
रीत गए कुआं बावड़ी
गर्मी में
सौंधे जल का मटका
अब कहां
कौन अनवासे ?
ऐसे बौराए 'यूकिलिप्‍टस'
गांव-गांव
कि विधवा हो गई
नीम, पीपल, बरगद की छांव
क्‍या कहें
मरूस्‍थल की पीड़ा
'कूलर' की हवा से।
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