कीकर की छांव तले
हांफ रही दुपहरिया
धरती-अम्बर
दोनों तपे
गरम तवा-से।
जगह-जगह उग आए
गर्म रेत के पहाड़
थार के पार तक
एक घना उजाड़
बहुत भागे पीछे
आग की लपटों के
बहुत छला मृग-तृष्णा
ने
फिर भी कंठ प्यासे
के प्यासे।
बूंद-बूंद कर पी गई
धरती के भीतर तक का
पानी तावड़ी
गूंगे हुए बातूनी
पनघट
रीत गए कुआं बावड़ी
गर्मी में
सौंधे जल का मटका
अब कहां
कौन अनवासे ?
ऐसे बौराए 'यूकिलिप्टस'
गांव-गांव
कि विधवा हो गई
नीम, पीपल, बरगद की
छांव
क्या कहें
मरूस्थल की पीड़ा
'कूलर' की हवा से।