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Tuesday, May 15, 2012

बाबू


यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन
भाग्‍य-नोट
लिखा विधाता ने
जिसका फीकी स्‍याही से
अस्‍पष्‍ट-सा
पढ-लिखकर कर
जब से होश संभाला
इसने जीवन बेच दिया है,
इसका जीवन सरकारी है,
दस बजे से पांच बजाता है,
अनचाहा बोझ लिए
स्‍वयं से गुम होकर
घर जाता है,
यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन
इसके टिप्‍पण पर योजनाओं की नीव टिकी,
कुशाग्र-बुद्धि
जिसकी
साहबों की ऊसर बुद्धि को सींचती,
फिर भी बेचारा
सहता है
झिडकी काले साहब की
जो रोब दिखाते
बिना बात की बिल्‍ली से घुर्राते।
छटनी करने का डर दिखलाते है,
यह विष का घूंट पिए जाता
सब कुछ सह लेता
बेचारा
बेकारी से भयभीत हुआ
हर माह कर्ज से दबा हुआ
जीवन का रिक्‍शा खींच रहा
जिसमें बैठा सारा कुनबा
बीवी-बच्‍चे,
आधे-नंगे, आधे भूखे
 यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन।