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Monday, October 15, 2012

हलधर




वह आदमी
जो
हल कांधे पर धरे
बैलों की रास थामे
अक्षरों से अनभिज्ञ
अक्षरों से शब्‍दों के रिश्‍तों
और
उनकी ध्‍वनि से भी अनजान है
किन्‍त वह कभी कोसता नहीं
पृथ्‍वी, सूर्य, मिट्टी-जल, आकश को
इन्‍हें टुकड़ों में भी नहीं बांटता
वह तो
इन्‍हें जोड़ कर
संचित करता है
जीवन-शक्ति
अपने भीतर
शक्ति से
जन्‍म देता है परिश्रम को
और
श्रम-बिन्‍दुओं को बाता है
मिट्टी में
फिर हल की कलम से
लिखता है कविता।
जो अस्‍त्र बन
राष्‍ट्र की अस्मिता के लिए
संघर्षों से
जूझना सिखाती है,
कविता
वह जो फसल-सी
लहलहा कर
भूख से लड़ती है।

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