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Thursday, June 28, 2012

लेटर बॉक्‍स


दुनियाँ
एक लेटर बॉक्‍स है
जिसमें
हम सब
पोस्‍ट कार्ड से नंगे
जिनका
कुछ भी नहीं गोपनीय
स्‍वत:
कर देते हैं प्रचारित
मन के भेद।
कोई
रंग-बिरंगे सजे-संवरे
मौन-निमंत्रण-से,
किडनेप कर लिए जाते हैं
जो रास्‍ते में
गन्‍तव्‍य से पहिले
और----कुछ
गलत पते के पत्र-से
भटकते रहते हैं यहां-वहां
और
अन्‍त में डाल दिए जाते हैं
डैड-लेटर्स में।
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Friday, June 22, 2012

हाड़ का मर्द

छा गया है
जिन्‍दगी के सम्‍पूर्ण
केनवास पर
दर्द
जैसे बन्‍द कमरे की
तस्‍वीरों पर चढ़ी हो
गर्द
और हटाते-हटाते
मलबे में
जिसके दब गया है
हाड़ का मर्द।
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Thursday, June 21, 2012

टीनापोल

दूर-दूर तक

गन्‍दलाई रेत पर

रंगराई पहाड़ी पर

कहीं बिछादी गई

कहीं पेड़ों की टहनियों से बंधी

सूखी रह

टीनापोल से धुली

चांदनी।

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Wednesday, June 20, 2012

अरूणाई

अरुणाई -उषा को
चारू मुस्‍कान के साथ
आंगन में उतरे
रश्मि-विहंग।
मेरे कमरे की खुली
खिड़की से आकर
दीवार पर लगे दर्पण में
अपने ही प्रतिबिम्‍ब से
चोंच लड़ाने लगी
चिड़ि‍या।
पड़ौस की
दो पड़ौसिने
आपस में लगी उछालने
मन की कुण्‍ठाओं की
बासी-बुसी खिचड़ी !
ईश्‍वर !
यह कैसा दिन उगा?
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Tuesday, June 19, 2012

विकलांग मन

सूरज के सम्भाव से
मेरे घर की
काई लगी, पपड़ाई
दीवाल पर भी फैंकी
मुट्ठी भर किरणें
मैं समझा
धूप है अरूप,
उत्तर दिया
मेरे सिर के ऊपर से
बोलते, उड़ते
खग-वृन्‍द ने
मेरे विकलांग मन की
कोडि़यायी शंका को,
ऊपर देखा
आकाश में
सूर्य तो उजला ही था।
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Monday, June 18, 2012

आइस्‍क्रीम

पूज्‍या को
मैंने
नमस्‍कार किया
थमा दी
मुझे
आइस्‍क्रीम,
भागता रहा मैं भागता रहा
पार कर कमरे से आंगन द्वार तक,
ठोकर से देहरी की
छटक कर हाथ से
गिर गई
आइस्‍क्रीम,
धूल सिर चढ़ गर्इ
बन्‍ध्‍या इच्‍छाओं के गर्भ में
भर गया तारकोल।
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Sunday, June 17, 2012

अहम् का हथौड़ा


अहम् का हथौड़ा
तोड़ता है
संयम की सांकल
गरजते हैं
इन्फिरियोरिटी-सुपीरियोरिटी
काम्‍ल्‍लेक्‍स के
बादल
तब, विधवा इच्‍छाएं
विषमता के गंदले दर्पण में
आंजती है
क्षोभ के कड़ुए तेल का
काजल।
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Saturday, June 16, 2012

हैंगर


ऐकान्‍त
बन्‍द कमरे में
मन का टेलर
सूती, रेशमी, टेरेलिन के
काल्‍पनिक वस्‍त्र
सी-सी कर टांकता है
मस्तिष्‍क के हैंगर पर
जिन्‍हें
समय का बौना पुरूष
पहिन-पहिन कर
उतार देता है
नंगी भीड़ के खुले कमरों में।
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Friday, June 15, 2012

ऊँ... शान्ति....

सिर कनपटियों के
सफेद बालों पर लगा कर खिजाब
करते हैं देखने का प्रयास
बैसाखियों के उस पार
दूर छूटे ख्‍वाब,
बहुत चाहते हैं झुंठलाना
बोनी दुनिया के
बुढ़ापे को
छू पाना
मगर
संशयों की जुगाली करते
देखते हैं आगत को,
बंदरी की तरह सीने से चिपकाए हैं
मृत बच्‍चे से विगत को,
मूक-बधिर से बोलने की छटपटाहट में
कोसते हैं वर्तमान को,
मोतियाई-दृष्टियां
देख नहीं पाती स्‍वच्‍छ दिनमान को
और
निहारते ही अल्‍हड़-यौवना को
असमय
तोड़ते हैं तिलस्‍मी रहस्‍य,
पपड़ाए होठों की
वीरना डयोड़ी पर
ऊंघते शब्‍द लड़खड़ाते हैं
ऊँ शांन्ति...........।
ऊँ शांन्ति...........।
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Thursday, June 14, 2012

वहशीपन


रात के अंधेरे में
उग आए
नाखून,
चेहरे पर
वहशीपन को
हर दिन
पर्दे के सामने आने से पूर्व
सूरज के आइने में
खुरचते, काटते हैं;
क्‍योंकि
जानते हुए भी
हम
एक दूसरे के सत्‍य को
नहीं चाहते उजागर करना।
पहिनाते हैं वस्‍त्र
लगाते हैं उबटन खींचकर बलात
खड़ी करते हैं
होंठों के काउन्‍टर पर
सेल्‍सगर्ल की मुसकान,
जो करती है,
हर सामने वाले का स्‍वागत।
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Wednesday, June 13, 2012

''मैं''


5.
कितनी छोटी है अंगुलियां,
छोटी है
परन्‍तु
सशरीर से जुड़ा
आदमी कितना बड़ा
जिन पर है खड़ा।
बात तो यह है अचरज की
आदमी हुआ है छोटे से बड़ा
फिर भी रहता है
छोटों से
हरदम अकड़ा,
''मैं'' के
सर्पपाश में है
जकड़ा आदमी
है कितना बुद्धि का लंगड़ा।
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Tuesday, June 12, 2012

1


1.
शिष्‍ट आचरण...........?
नेताई भाषण।
शराफत...........?
कटी हुई सही इबारत।
एक कप चाय...........?
क्‍लर्की हमदर्दी।
2.
आयोगों का
कर के गठन
कर रहे हैं खोज
समस्‍या के समाधान की
किसी अन्‍य पर डाल
अपनी हकर्मण्‍यता और असफलता का बोझ।
3.
नए दल बदल
बदरंगी नारों के
पुलिन्‍दें सौंप
भीड़ को उत्‍तेजित कर
करते आए हैं
हम
स्‍वतंत्रता का सदुपयोग।
4.
कमरे के बगल वाले अमरूद के पेड़ पर से
नन्‍ही-नन्‍ही चिड़ि‍यां
लगी पढ़ने विज्ञापन
चस्‍पा करता नोटिस
शीतल पवन
जागो
धरती पर उतरने वाली है
सूर्य-किरन
आओ
धो लें मिमिर-मन।
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Sunday, June 10, 2012

कोई एक कुर्सी के लिए

कोई एक कुर्सी के लिए
सौंप देता मैं
अगर, स्‍वयं अंधेरों को।

बन्‍द कर लिफाफे में
चरित्र को भेज देता कहीं दूर
पत्‍नी की मांग में भरता
किसी और नाम का सिन्‍दूर।

सच ,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
अगर,
मुँह मोड़ कर हो जाता खड़ा
देखकर उतरते सेवेरों को।

औढ़ आयातित मुस्‍कान
साथ ले साकी ओ जाम
पर्दों के पीछे बन्‍द कक्षों में
होती हर रंगीन शाम।

सिर्फ
उनके एक सुख के लिए
कहता गुलाब अगर कनेरों को ।

सच,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
सौंप देता मैं
अगर, स्‍वयं अंधेरों को।

Friday, June 8, 2012

स्‍वार्थों के बरगद

कुर्सियों से चिपके लोगों के
हाथों गढ़वाते रहें कीलें
हडि्डयों की देह पर
कब तक हम
यातना सहते रहें ?
चर कर पीढ़‍यिों का सुख
स्‍वार्थों के बरगद तले
कर रहे जो शाब्दिक जुगाली,
भला कहां है
देखने को आंखें
उनके सिर्फ दो कोड़ियां हैं
जो देख सके हमारी बेहाली
बाज के शिकंजों में है
इच्‍छाओं के कपोत,
कब तक हम
मुक्ति की वंचना सहते रहें ?
मुर्गे की बांग भोर के आने का वह़म है,
सच तो यह है कि धुँए में
डूबा है सारा आकाश,
चालाक लोमड़ियां
शहर की सड़कों पर घूमती है
उजले वस्‍त्रों में
और समय पाते ही
खा जाती है किसी का विश्‍वास,
कितनी ही उजली भोर की
क्‍वांरी किरण को निगल गए
ये, गुनाह के अँधेरे
आखिर कब तक
किसी कुछ की
सांत्‍वना सहते रहे ?
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Thursday, June 7, 2012

उगते आस्‍था के फूल

बूढ़े, लंगड़े,
बौंडे, खूंटे छोड़े
जर्दिया पान की पीक से
बदुआते
आदर्श-
दांत खिसियाते हैं;
धुंआती अफवाहें
सठियाये संशय
कीलते हैं
मेरी राहों को,
चुगल-खोर हवाओं की
फसफुसाहटें
नोंचती है
मेरे युवा मस्तिष्‍क को;
तब उदास निगाहों को
टांक देता हूँ
आश्‍वस्‍त होने को
तुम्‍हारे रेशमी-बालों पर
और
तुम्‍हारे होठों पर
उगते आस्‍था के फूल
प्रेरणा देते हैं
मुझे
विश्‍वास के देवदार पर
चढ़ने की
आकाश की ऊँचाइयों को
नापने की।
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Wednesday, June 6, 2012

निकल छन्‍दों की कैद से

निकल छन्‍दों की कैद से
गीत
चाहता है नए अर्थ में जीना।
बूड़ी उपमाओं के
अनुसरण का
नहीं चाहता अंकुश
अक्षर
व्‍याकरण का
अवसरवादी अलंकारित
पंक्तियां
है इनकी कुंठित लय-वीणा।
नहीं मांगता तन
स्‍वर्ण स्‍याही का
प्रतीक यह
प्रगीत
संबल हर राही का
शीर्षकों के कोलाहल से
अलग-सा
अपने पानी का स्‍वनाम नगीना।
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Tuesday, June 5, 2012

आंचल


उषा के आंचल की
गांठ खुली
घर आंगन
छत पर
भीतर बाहर
पथ पर
श्‍वेत-श्‍वेत किरणों की
ज्‍वार रुली
जगी भीड़
नगर-ग्राम
धूप से फैले
अनेक काम
बर्फ सी जमी राज
पिघली ।
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Monday, June 4, 2012

बंसी धुन

टूट गए
किरणों के गोफन
सूरज का ग्‍वाला
ले गया घेरे
चरागाहों से
धूप की भेड़ें
लौट रहे
जंगलों से गौधन।
उंढ़ेल गया रंग
नभ के दर्पण पे
घिर गई उदासी
राधा के मन पे
छेड़ रहे
बंसी-धुन मोहन।

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Saturday, June 2, 2012

नेता जी


नेता जी !
देशहित......... ?
''अपवाद''
नेता !
समाजवाद........ ?
''गरम कोट

सर्दी आई पहन लिया

गर्मी आई उतार दिया।''

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Friday, June 1, 2012

अधूरा स्‍वप्‍न

हम अँधेरों में
टटोलते थे
सूरज
उगने के साथ
टूट गया
एक अधूरा स्‍वप्‍न
जगे तो
चाय के साथ
पी लिया
झूठ
औढ़ लिया
स्‍वार्थ की चादर को
जतन से
आंखों पर पहल लिया
सुनहरी फ्रेम वाला
भ्रम का काला चश्‍मा
चुनने तो थे मोती
बीनने लगे
घोंघे
सागर पर उगना था बनकर सेतु
होना था पार
जनगण को
डुबो दिया 
सब गलत हो गया।

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