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Friday, October 12, 2012

भेड़ की नियति



भेड़ें
मरुस्‍थल/रेत की/भूख/प्‍यास
पीठ पर/लादे
कांधे पर लाठी धरे
हांकते
गढ़रिए के डर्र-डर्र
इशारों पर
पठारों/कंकरीले मैदानों के पार
नपीची गरदनें किए
सूंघती/घास/पानी की गंध को
चलती जाती है
रेवड़-दर-रेवड़
गरदनें झुकाए
धरती की नमकीनआग चाटते
डंठलों को चबाते
जितने दूर चले जाते हैं
उतनी ही दूर हाती जाती है
उनसे
पानी/हरी घास की तलाश
उनके मिमियाने/आपस में सींग उलझाने से
कोई फर्क नहीं पड़ता
गड़रिए को
वह
किसी नेता की तरह
माईक पर ध्‍यान आकर्षित करने की
मुद्रा में
लाठी की ठक्-ठक् कर
हांक लगा
भेड़ों को
बबूल की/गंजी छांव तले
इकट्ठा कर लेता है
अपनी
भूख/प्‍यास के लिए दुहाता है
दूध/भेड़ों का
बेच लेता है कसाई को
भेड़े
गड़रिए को
पीठ पर लदी/पोटली
पानी की छागल से
रोटी खाते/पानी पीते
ठंडी नज़रों से/टुकर-टुकर देखती है
और
चुपचाप/अपनी नियति पर
गरदनें लटकाए
जुकाली करती रहती है
कि
भेड़ पर कोई नहीं छोड़ता
ऊन।
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