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Thursday, July 12, 2012

शून्‍य में लटका देश



बूढ़ी होती नसों में
जीने की आकांक्षा
प्रेत बन कर
धरती और आकाश के बीच
भटक रही है
और जवान नसों में खौलता खून
मुट्ठियों में
भींच लेना चाहता है
मानसून।
दो ध्रुवों के संघर्ष का
क्‍या हो परिणाम
कोई नहीं जानता,
हर कोई
हवाओं में मुट्ठियों तान-तान कर
बन जाना चाहता है इतिहास,
इनमें से
कोई नहीं चाहता
अपनी-अपनी पीक के निशानों पर
पराजय के झण्‍डे गाड़ना।
गर्म तपती रेत पर
नंगे बदन
छालों को सहेजता देश
शून्‍य में लटका है,
ऐसे में
कौन, कैसे करे
स्‍वतंत्रता का आन्‍दोलन ?
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