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Friday, January 11, 2013

गज़ल




थूक कर चाटते हैं,
कितने लोग विचित्र हो गए।
गि‍रगिट की तरह बदलते रंग,
कैसे चरित्र हो गए।
जलती चिताओं की,
आग पर सेकते रोटियां ये
बाजीगार, बटमार, रहजन,
कैसे मित्र हो गए।
इस दौर में देखो हर ऊसूल हैं,
कागजी-फूल,
खुशबू के भी खतरे हैं,
सब नकली, इत्र हो गए।
रातों के अपराध से,
दहशत ज़दा है चॉंदनी
छूने से उनके ख्‍वाब,
चॉंद के अपवित्र हो गए।
सब गवाह है,
सब अपराधी यहां मुन्सिफ भी, यारों।
कि इजलास में नाकारा,
''बापू'' के चित्र हो गए।
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