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Wednesday, September 19, 2012

संकल्‍पहीन लोग



बस्तियों में
घुस आए हैं
खिसियानी बिल्लियों के झुंड-दर-झुंड
नोच नोच कर
चेहरों पर बना दिए हैं निशान।
चेहरे
अपनी पहचान खो चुके हैं,
भद्दे बदसूरत/सब से नजर आते हैं।
अब
इनसे न नफरत ही है और न ही अफसोस ही
ये पाली हुई तो हमारी ही है,
फिर खम्‍भा नहीं नोचेगी तो क्‍या करेंगी?
खम्‍भे से क्‍या कम हैं हम
जिनका कोई स्‍वात्‍म नहीं
हर कोई
खूंटी ठोक टांग देता है अपनी कमीज
पसीने से बहुआती
हाल से मजबूर हैं या नियति हो गई
कि क्षण्‍-क्षण अस्मिता लुटते देखना
या फिर
लगता है कि अभ्‍यस्‍त हो गए हैं।
ऐसे हादसों के
क्‍योंकि
संकल्‍पहीन डरे-डरे सहमें-सहमें
दूर से ही ह्श्‍श्‍श्‍ ह्श्‍श्‍श्‍ कर
भगाने की
निष्‍फल चेष्‍टा कर रहे हैं हम
और
हावी होती जा रही हैं
बिल्लियां‍।
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