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Thursday, September 6, 2012

थरथराती जिन्‍दगी

झरती नीम की सूखी पत्तियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।
यों कसैली चिपचिपी निबोलियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।। 

नजर का नजरिया ही और हो गया मन की हाट में-
तोल में तोला-माशा-रत्तियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।

लाश से घिसटते हुए जी रहे हम बेहया हो इस कदर,
कि अन्‍धड़ में उड़ती चिनगारियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।

लड़ती रही रोज-रोज भूख अपनी ही देह से लड़ाई,
यहां धुंआती गीली लकडि़यों की तरह हो गई जिन्‍दगी।

उम्र सारी गुजर गई हमारी यो लड़ते अंधेरों से,
रात भर पिघलती मोमबत्तियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।

ढो रही बोझ अनचाहा निरन्‍तर, मिलता न पल भर विश्राम,
थरथराती रेल की पटरियों की तरह हो गई जिन्‍दगी।
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