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Thursday, May 31, 2012

अंधेरे चश्‍में

आंखों पर
लगा अँधेरे चश्‍में
तलाशते हैं रोशनी।
गुजरते हैं
पकड़ अंगुली गुनाह के
तंग रास्‍तों से,
करते हैं दोस्‍ती
पहन कर खद्दर
एैयाशी के गुमाश्‍तों से,
करते हैं बातें चरित्र की
मारते हैं
लड़कियों को को कुहनी।
तलाशते हैं
जन्‍म पर विषमताओं को
समाधान
भाषण में,
बन्‍द है पुस्‍तकों में
गाँधी का दर्शन
कहां है आचरण में ?
कौन पढ़े-गुने
कुर्सियों की चिन्‍ता में
जीते हैं
सुरा-मोहिनी।
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Wednesday, May 30, 2012

सम्‍बन्‍ध

हो गए
छोटे और छोटे
संबंधों के घेरे।
कजलाये हैं स्‍नेह के क्षितिज
धुंआती-सी दीवार
बीच दर्पण
और बिम्‍बों के
आकृतिहीन आकार।
झपट ले गए रोशनी को
गुनाह के अंधेरेा
शब्‍द पर प्‍लास्टिकी चेहरे
कैक्‍टसी-कुटिल
अर्थ,
नयी कविता के
नाम पर ज्‍यों भाषायी ज्ञान
व्‍यर्थ ।
छन्‍द, लय, गति
हुई घटनाएं
ज्‍यों बीते सेवेरे ।
मिलकर छूट जाते
स्‍टेशन तक
रेल यात्रा के
मित्र
हम बीथिकाओं में
प्रदर्शित
रंग-रूप-रसहीन
चित्र।
इतना है विषाक्‍त आदमी
डरते हैं सपेरे।

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Tuesday, May 29, 2012

मतदाता, राजनीति, चुनाव और वोट

1.
­बल्‍ब की
पाण्‍डु
रोशनी को
चर लिया
कांच के रंग-महल की
मरक्राइज्‍ड गाय ने।
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2.
राजनीति
एक टुकडा पान का
थोडा-सा
सफेद चूना
शांति सूचक,
लाल-कत्‍था
बलिदान का सूचक
थूक दिया जाता है
शौचालयों में यहां-वहां,
रह जाते हैं
सिर्फ
मूंह में
सुपारी के टुकडे
दाँत बजाने के लिए।
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3.
सुबह आफीस जाते
खरीदी.......
और
शाम को लौटते
फैंक दी गई.......
खाली माचिस की
डिबिया
यह है मतदाता।
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4.
भारत की आत्‍मा है
ये गाँव
जातिवाद के विषधर से दंशित
जी रहे लिए
जहरीला तनाव
और भी ज्‍यादा उगल जाते हैं
जहर
ये चुनाव।
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5.
यह सोचना
व्‍यर्थ्‍ हो गया कि अब फिर
मेरा 'वोट'
अपना मुखडा नहीं बदल लेगा ........?
क्‍योंकि इसके
आचरण का पीताम्‍बर
तार-तार हो चुका है।
सत्‍ता के भूखे
कौरवों की सभा में
द्रौपदी के शल को बचने में असफल
स्‍वयं दु:शासन के हाथों
निवर्सन हो गया
और भयाक्रांत द्रौपदी
शंकित है।
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Monday, May 28, 2012

अशीर्षक

1.
इच्‍छाएं........?

जिसका कोई गणित नहीं

रोटी........?

भू-गोल

सहज-सुलभ

सिर्फ

नेताई बोल।

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2.
इन्‍सान को तलाशूं कहां

किन-किन मुखडों में

आदमी यहां

बंट गया

कई-कई टुकडों में।

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3.
लापता सूरज के

शहर में

जिन्‍दगी जीना........?

मात्र

क्‍लोरीनेटिड जल पीना।

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4.
कैसी भोर ........?

फिर जगा शोर

गाड गया रोम-रोम में

आलपिन

यह किरणें वाला

दिन।

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5.
नेता वही

जो अपनी कही बात

नकार दे

हर झूठ को

सच्‍च बना

प्रचार दे।

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भूल सुधार


हाय! मौका दिए बगैर

भूल सुधार का

लो, चले गए वर्ष।

हौसलों और तमन्‍नाओं का

दौडता था

नया खून रगों में

मुटि़ठयों में थे

फौलादी इरादे

विश्‍वास

परादर्शी दृगों में।

छिटक कर

टूट गए

आंखों के उत्‍कर्ष।

मिट़टी को उपजाऊ बनाने की

उम्‍मीद में

खुशहा फसल के

खाद बन गए

अनेक संकल्पों के सूर्य

देखते स्‍वप्‍न

सुनहरे कल के।

मगर, हाय!

अंकुर क्रांति के नहीं

उगा तो नागफनी अमर्ष।

फहरानी तो थी कीर्ति-पताकाएं

हर मील पर

गाड दिए खंजर

चीर गए सरे आम शील को

टीनापोली आचरण

बांच रहे गीता की जगह

सत्‍य कथा बालचर।

विद्यालय ...........?

अंधा कुंआ,

एक हांपता संघर्ष।

समय की रेत पर

छूटते पद-चिन्‍ह

फडफडाती ये तारीखें।

भूत की अनंत खोह में

अन्‍याय गूंगी घटनाओं-सी

दफन हो गईं

वर्तमान इतिहास की चीखें।

आखिर कब तक

करते रहेंगे

विचार विमर्श।

सौतेले बेटे-से

गांव पर

मंडराती चीलें

खजूर सी योजनाओं के

बौने विकास के

पांवों के नीचे

सूखी झीलें।

झंझावत

और

कागजी नाव के

संज्ञा-हीन निष्‍कर्ष।
------

Wednesday, May 23, 2012


1.
अज्ञानी का
तर्क
शून्‍य पात्र में
जल भरते ही
भक्‍क-भक्‍क ।
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2.
योजनाएं........ ? ........... ?
कागजों के स्‍टेडियम में
भूखे आंकडों की
अन्‍धी घुड-दौड।
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3.
मुर्दा पीढियों के
नाम-ज्‍यों
एकत्र हो गए
घर में
डालडा के
संज्ञाहीन
खाली टिन।
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आश्‍वासन

तुम्‍हारे आश्‍वासन की
अंगुली पकडे
नन्‍हें बालक-सी
प्रफुलता लिए
ठुमुकता फिरता था मैं
पूरे माहौल में
चर्चा थी
बसंती हवा के आने की,
अहसास से
धडक उठता था
पत्‍तों का हृदय,
फूल बनने की अभिलाषा में
उमंग रहीं थीं कलियां
मन की कोकिला
कूकती फिरती थी
डाल-डाल
उमंग के सिवा कुछ भी तो गम न था।
तुम्‍हारी-
बेहद आत्‍मीयता के अससास से
मेरे छोटे-छोटे पांव
बढते-से लग रहे थे
एक गति-सी महसूसता था मैं
लगता था, जैसे मैं
तुम्‍हारे घुटनों से लगकर
कमर, कान और फिर कान के ऊपर
यानी तुम्‍हारे बराबर
होता जा रहा था मैं।
मेरा हर दर्द
तुम्‍हारा दर्द था ना......?
मेरी उदासी
तुम्‍हारे चेपर स्‍याह-सी
घिर आती थी......?
मेरे टूटने मात्र के खौफ से
तुम
सूखे पत्‍ते-से कांप जाते थे ना..... ?
मगर उस दिन
तुम्‍हारे
भीड में अंगुली छोड दिए जाने पर
अबोला बालक
मैं---
दहशत का मारा
दिशाहीन-सा
टूटे विश्‍वास की मुटि़ठयों में
बन्‍द किए
अपने आत्‍म-विश्‍वास की पराजय पर
स्‍तब्‍ध-सा
आंखों के खारेपन को उलीचता रहा
और तुमने----
मुझे तलाशने की भूल नहीं कीा
इस तरह छूट जाना भी
कितना निर्मम होता है ?
हटा भी तो नहीं पाता
मन के दरवाजे पर लगी
तुम्‍हारे नेह की नेम-प्‍लेट,
आज भी---
नहीं लगता
कि यह सही हुआ है,
लगता है
कहीं गलत हवा
घुसपैठिये-सी
विचार-यंत्र की तोड गई है
इसलिए
मस्तिष्‍क के रेडार पर
मेरी मासूमियत का चित्र
नहीं उभर पाता है।
----

Tuesday, May 22, 2012

अशीर्षक

1.
गंदलाए बौरे पर्वत के
नंगे पावों के नीचे
लेट गई
सभ्‍यता
छोडकर आकाश की ऊँचाइयां
निर्ससना
कामिनी।
----

2.

औरत........
उजलायी सुन्‍दर-सी
एस्‍ट्रे में
यौन की जलती
सिगरेट।
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Friday, May 18, 2012

जंगल

एक सिरे से दूसरे सिरे तक
दूर, दृष्टियों के उस पार तक
फैला है
जंगल ही जंगल, एक काला जंगल
बारूद की दुर्गन्‍ध,
आदमी के जले मांस की संडांध
जिसमें भटकता
आम आदमी
जंगली जानवरों से आतंकित
स्‍वयं अपनी पहचान से कटा
भयांक्रांत
अमानवीय आचरणों का शिकार
वहम पाले है
किसी जनपद में रहने का
जहां
संशयों की छिपकलियों पर सवार
झिंगुरों की भाषा में बतियाते
सत्‍ता के भूखे भेडिए
मनुष्‍यता को मिटाने पर तुले हैं
और
सीलन भरी अंधेरी कोठरियों में बन्‍द
ठंडी आग पीता हुआ
आम आदमी
अपनी पहचान से कटा
सूर्य की तलाश में
भटक रहा है
युग-युगों से
इस काले जंगल में।

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Thursday, May 17, 2012

क्‍लर्क

चश्‍मे के भीतर से
घूरती
घाघ क्‍लर्की आंखे
आगन्‍तुकों को
आतंकित कर
व्‍यर्थ-सी
मशगूल हो गई
सामने स्‍वेटर के फंदे बरती
टाइपिस्‍ट पर
और काली मजदूरिन की
सपाट-सूखी छाती सी
टेबिल पर गोलाई की मुद्रा में
अंगुलियां
नचाते हुए
लावारिस नाजायज औलाद सी
फाईल
एक ओर सरका
एक प्रश्‍न चिन्‍हीं दृष्टि
फैंक
हांक लगाई-
’’धनीराम! पेपरवेट’’
आगन्‍तुक ने
होंठों पर
मिमियाती हंसी लाते हुए
द्वार पर बीडी फूंकते
धनीराम के हाथ पर हाथ रखा
फिर-
’’हाँ, बाबूजी पेपरवेट’’
कहते हुए
चुम्‍बकीय गति से
धनीराम
फाईल उठा
साहब के कमरे में घुस गया।
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Tuesday, May 15, 2012

बाबू


यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन
भाग्‍य-नोट
लिखा विधाता ने
जिसका फीकी स्‍याही से
अस्‍पष्‍ट-सा
पढ-लिखकर कर
जब से होश संभाला
इसने जीवन बेच दिया है,
इसका जीवन सरकारी है,
दस बजे से पांच बजाता है,
अनचाहा बोझ लिए
स्‍वयं से गुम होकर
घर जाता है,
यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन
इसके टिप्‍पण पर योजनाओं की नीव टिकी,
कुशाग्र-बुद्धि
जिसकी
साहबों की ऊसर बुद्धि को सींचती,
फिर भी बेचारा
सहता है
झिडकी काले साहब की
जो रोब दिखाते
बिना बात की बिल्‍ली से घुर्राते।
छटनी करने का डर दिखलाते है,
यह विष का घूंट पिए जाता
सब कुछ सह लेता
बेचारा
बेकारी से भयभीत हुआ
हर माह कर्ज से दबा हुआ
जीवन का रिक्‍शा खींच रहा
जिसमें बैठा सारा कुनबा
बीवी-बच्‍चे,
आधे-नंगे, आधे भूखे
 यह बाबू आफीस का
दुर्बल दीन-हीन।

Monday, May 14, 2012

मैं नहीं जानता, मैं क्‍या बोलता हूँ ?

मैं नहीं जानता
मैं क्‍या बोलता हूँ ?
एक ही के प्रति
मेरे हो जाते हैं
दो अभिमत
झुठला देता हूँ
स्‍वयं की लिखी इबारत
हर बोध को
स्‍वार्थ की तुलना में तोलता हूँ।
मैं नहीं जानता
मैं क्‍या बोलता हूँ ?

जो पहले थी भली
वहीं फिर हो जाती है बुरी
देता हूँ गालियां
मेरी कोई नहीं होती धुरी
टिकने को स्‍वयं के ‘स्‍व’ को-
कुण्‍ठाओं की
कुल्‍हाडी से छीलता हूँ
मैं नहीं जानता
मैं क्‍या बोलता हूँ ?

मेरा बडप्‍पन
हो जाता है बौना
अहम की तपती दुपहरी में
झुलस कर सूखा दौना
जिसमं शंका के छेद से
रिस जाता है सारा विश्‍वास
यों विवेकहीन अन्‍धेरे में
खालीपन को खंगालता हूँ
मैं नहीं जानता
मैं क्‍या बोलता हूँ ?
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Saturday, May 12, 2012

भीड


खुली भीड
बन्‍द भीड
अनियंत्रित भीड
नारों और जयकारों की भीड
देखते हैं हम सब
अधिक सभ्‍य हो गए हैं
और बर्बरता
नए बोध का काला चश्‍मा लगा
घुल गई
चुस्‍त बहुरंगी सभ्‍यता में।
नए आयाम
नए प्रतीक
नये बोध
अत्‍याधुनिक युग का आविर्भाव
नील-नीलान्‍त अन्‍तरिक्ष की
खुलती सीढियां
मगर
ऊपर से नीचे को उतरता है
एक प्रश्‍न चिन्‍ह ?
उपलब्ध्यिों की अश्रुत गोद में
महा-अभाव के महा-शून्‍य में
आणविक – प्रक्षेपास्‍त्रों से
भयभीत
विष्‍मताओं की घाटियों में
गूंजता
पूछ रहा है अपनी ही आवाज में
कि नये आयाम पर
क्‍या पाया ?

प्रिय पाठकों का आभार

प्रिय पाठकों,
यहां पर मेरे पिता द्वारा लिखित ''अशीर्ष कविताएं-1984'' में प्रकाशित संग्रह में संग्रहित कविताएं हैं, जिनका शीर्षक नहीं है। इस संग्रह की सभी कविताएं बिना शीर्षक हैं।  इनके संग्रह में मृत पडी कविताओं को बरसों बाद यहां मेरे द्वारा शीर्षक देकर  पुन: जीवन प्रदान करने का प्रयास किया है। ताकि आपको कविता पढने में आसानी हो।

मुझे आशा है कि आपको यह मेरा प्रयास पसन्‍द होगा।

-- संजय सिंह जादौन

बीत गया बरस

बीत गया बरस
बरबस।
पढते-पढते अखबारी
घटनाएं ।
सहमी-सहमी गूंगी
संध्‍याएं।
अपने को सहेजने
के प्रयास में
टूट गया थर्मस।
बीत गया बरस
बरबस।
निभाने को बनी रहीं
सौगातें
सन्‍दर्भों से कटी हुई
बातें
राह चलती लडकी का ज्‍यों
अचानक झपट गया पर्स ।
बीत गया बरस
बरबस
थक गया मन चर्चित
क्रीडाओं से
टूट गया अन्‍तस ज्‍यों
प्रसव-पीडाओं से
बांट गई ढेर से तिकोन
सरकारी नर्स।
बीत गया बरस
बरबस।