बहुत दिन हुए
ऊब पीते हुए,
चलो इस घड़ी
तृप्ति के वास्ते
गीत ही गुनगुनाएं।
अपने ही घर में
जी रहे हो कर प्रवासी,
हंसी के चेहरे
छा रही उदासी।
रिश्तों के दर्पण
अदेखे ही
चटक गए,
बहुत दिन हुए
दूरियां मापते,
चलो, इस घड़ी अधर ही जुड़ाएं।
डूबी-डूबी आवाजें
हम
बन रे कूप,
बरगद से फैले भी
बाहों में छिपी नहीं धूप।
प्रस्तर प्रतिमा से
मूक ही रहे हम,
बहुत दिन हुए मौन जीते हुए
चलों, इस घड़ी हम व्यथा ही सुनाएं।
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