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Friday, June 1, 2012

अधूरा स्‍वप्‍न

हम अँधेरों में
टटोलते थे
सूरज
उगने के साथ
टूट गया
एक अधूरा स्‍वप्‍न
जगे तो
चाय के साथ
पी लिया
झूठ
औढ़ लिया
स्‍वार्थ की चादर को
जतन से
आंखों पर पहल लिया
सुनहरी फ्रेम वाला
भ्रम का काला चश्‍मा
चुनने तो थे मोती
बीनने लगे
घोंघे
सागर पर उगना था बनकर सेतु
होना था पार
जनगण को
डुबो दिया 
सब गलत हो गया।

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