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Wednesday, October 10, 2012

बीते सावन की यादें


गर्मी से झुलसे
वन-पर्वत हुलसे
जल की लिए छागल
पहाड़ी के पार जो दिखा बादल।
ग्रीष्‍म से तपते
द्रुम-लता
पात-पात का कर चुम्‍बन,
सूत कातती
तकली-सी नाचती बदली
लायी प्रणय का निमंत्रण;
आया आषाढ़
नहाया पहाड़
भीज गया भीतर-बाहर
छुमकी जो बूंदी की पायल।
अकेले में
बिजली की देह

कर जाती मन खराब

चिहुंक-चिहुंक उठता

कामातुर

जलपांखी मेघ पीकर शराब;

गाती कजरी

पगली बादरी

बीते सावन की यादों में

सिसकता है बूढ़ा जंगल

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