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Tuesday, December 31, 2013

कहो नव वर्ष













ठिठुराति सर्दी
ठंडी चाय टूटा थमर्स
प्रकृति-पुरूष का होता
आस्‍था-विश्‍वास
खण्‍ड-खण्‍ड
हर पल याद मुझे
2013 का उत्‍तराखण्‍ड
भूकम्‍प–दंगों की त्रासदी
दे गया गतवर्ष
सदी की त्रासदी
महाकाल का ताण्‍डव नृत्‍य
अनिश्चित सियासती
गली के कुकृत्‍य
ओ। मेरे भारत
कैसा उत्‍कर्ष
पीत-पर्ण यहां-वहां
राग-द्वेष, द्वार-द्वार
खड़े प्रश्‍न अनेक
फैला आभिज्‍यात्‍य
अनाचार
आंसू से भीगा
गणतंत्र का हर्ष/
भद्र जनों का नाटक यहां
अभिवादन/अभिनन्‍दन
विषधरों से आतंकित
गंधायित यह चंन्‍दन-वन
छटेंगे क्‍या कभी
काले बादल /

कहो नव वर्ष ?

Thursday, February 21, 2013

ओसकण




शिशिर की भोर में
सकुचाती धूप में
हरियल
फसलों के पत्‍तों / दुर्वा पर
ओसकण बिखरे
लगते ऐसे
जैसे
माघ के
द्वादशी चन्‍द्रमा की / चन्द्रिका में
महारासरत्
कृष्‍ण-राधिका के
कंठ-हार से
टूट कर बिखर गए हों
मोती।
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Tuesday, February 19, 2013

सरसों




होड़ लेते
धरा खिले
सरसों के पीले फूल से
नभ के
टिमटिमाते असंख्‍य
तारे
क्‍या
ग्राम्‍य-बाला की
कुँआरी हथेलियों पर
लगा पाएंगे
हल्‍दी ?
वो आकाश-कुसुम,
कब
धरती के हो सके हैं
मेहनतकश कृषक-बाला के
हाथ
सरसों ही करेगी
पीले।
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Monday, February 18, 2013

बसंत




मित्र !
अभिजात्‍य
रेशमी-शॉल ओढ़
कांधों पर
नागरीय-शकुनी का शव धरे
दु:शासनी मकढ़ी के जालों
दुर्योधनी द्वेष की गर्द में
आंकठ डूबे
अपने भीतर-बाहर के सेभी द्वार बंद कर
हरियल खेतों की मेड़ों पर
गेहूँ की बालियों
सरसों के पीले फूलों
महकाते धनिया
बौराई अमराइयों की
बासंती-गंध को
श्‍वासों में कैसे भर पाओगे ?

मित्र !
अपने को ''मैं'' से मुक्‍त करो
कोकिला के स्‍वर में स्‍वर मिलाओ
भंवरों के गुन्‍जन के संग-संग
मन को उन्‍मुक्‍त हो उड़ने दो
फिर बसंत को
अपने भीतर
खिलखिलाता पाओगे।
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Sunday, January 13, 2013

नेहर आंगन लगे बिराने




नई दुल्‍हनिया
खड़ी अटरिया
निरख नम-नयन काजल
लगी हिलहाने।
सुलगती धूप
अंचरा छुपा/बदरिया
शीतल झरी से
भिजो गई चुनरिया
माटी को
सौंधी/बांट रही
घर-घर पुरवा
जा बैठी
सिरहाने।
दादुर, मोर, पपीहा/ढाई आखर
प्रेम के रहे बांच
तन-मन-प्राणों में
ठंडी-ठंडी आंच
अंकुरित दूर्वा सी
नचते मोर-पंखों सी
कसमकस
लगी नस-नस पिराने।
सुनी सांवनी रातें
बिजुरिया खेले/आंच मिचोली
जबरन घुस चौबारे
फुहारे करें ठिठोली
नेहर-आंगन
सखी सहेलियां
अपने लगे
अब बिराने।
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