छिलता है शरीर रोज भीड़ का दस्तूर है।
बिकता है ज़मीर रोज, भीड़ का दस्तूर।।
बिखरता रहा सूरज टूट के किरच-किरच हो,
चूभते रहे तीर रोज, भीड़ का दस्तूर है।
घर की तलाश में मिली यंत्रणा आँखों को,
चुकता रहा नीर रोज, भीड़ का दस्तूर है।
वृक्ष तो है कुल्हाडि़यों से सहमा-सहमा सा-
आता है समीर रोज, भीड़ का दस्तूर है।
दिन ढले शाम होती है कि आलपिनों की चुभन
टीसती है पीर रोज, भीड़ का दस्तूर है।
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