मंदिर के स्वर्ण
कलश से
सरक जाती है जब धूप,
होठों पर मुखर हो
आता बरबस तुम्हारा नाम।
यह गोधूलि, सांझ
अकेली,
श्यामल सी छाया
मैली
चहचहाते नीड़-नीड़
में,
लौटते पक्षी भीड़ में
द्वार पर रख जाते
है गुमसुम-सी बुझी-बुझी शाम।
होठों पर मुखर हो
आता है बरबस तुम्हारा नाम।।
दृग मूंद सोती पांखुरी
दृग मूंद सोती पांखुरी
दूर टेरती बांसुरी
निशा नशीली साथ न
तुम
भीतर-बाहर तम, आंखें
नम
तुलसी-चौरे पर टेरे
कि पूजा का दीप-ललाम।
होठों पर मुखर हो
आता है बरबस तुम्हारा नाम।।
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