हर तरफ
पसरा रेत का समन्दर है
उड़ रहे
चहूं ओर गर्म बवण्डर है
दूर तक
नहीं वृक्ष अभिशप्त छांव है
आग पर
चलने को यों विवश पांव हैं
रेत में
हो गई गुम नेह की नदियां
बींध कर
देह को चलते अग्निश्र हैं
सुमन मन
थे जो आज बबूल हो गए
स्वर्ण-मृग
अब ‘’राम’’ को कबूल हो गए
सत्य–मति
रास आती न ‘विदुर’ को भी
कंठ तक
आते न स्वर, मौन अधर हैं
भू-धरा का भी हो रहा कंपित गात
दीन की
आंख से हो रहा अश्रु-पात
मिलने से
पहले ही बिछुड़ गया डार से
फूल के
घर रास रचाता पतझर है
यही तो
’धर्मचक्र’ नहीं और न जीवन
ज्ञान-धन
वह जो करता शांत मन
निज रूप
निखरो ‘जन-गण-मन’ कितना विकल
प्यास से
दूर अभी मानसरोवर है
हर अधर
पर धरो बांसुरी सुरीली
गीत में
उतरने को आतुर हंस-स्वर है।
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