अब तो
नीम-नींद से जाग
श्रम-शिव!
जाग जाग रे जाग।
गहन अंधकार की कलाई
तू नहीं तो कौन तोड़ेगा?
छल-कपट द्वेष-ईर्ष्या – घट
तू नहीं तो कौन फोड़ेगा?
छोड़ अब
श्मशानी-वैराग्य
चिलम की
चेता रे तू आग।
तेरी कामधेनू-फसलों का
नीर-क्षीर पी रहे सपोले
नहीं समय यहां किसी को
देख तो जन के फफोले।
यों न व्यर्थ
कोसता रह भाग
छू ले
नभ लगा के छलांग।
आक्रांत संगीत-शेर में
गुम हुए अलगोजे के स्वर
तेरे सपनों के गांव-छांव
चंदन-बन आ बसे विषधर।
तुमको ही
कील कर ये नाग
गाना है
मंगल नव-विहाग।
-----
No comments:
Post a Comment