प्रहार कर
प्रहार कर
दुर्दान्त के चरण पर
बना क्यों कंगाल
कर स्वयं से सवाल
भूमण्डलीयकरण फन
फैला रहा विकराल
नाथ इसे नाथ इसे
नाच-नाच-नाच
महाकाल के फन पर।
क्या झूठ क्या सांच रे
समय-किताब बांच रे
होने दे न ठंडी
तू भीतर की आंच रे
रीढ़ पर तू
हो खड़ा
अरि-सन्मुख तन कर
नाच-नाच-नाच महाकाल के फन पर।
कि तिजोरियों में बंद
है पसीने की गंध
छलते आ रहे तुझे
ये सत्ता के अनुबन्ध
आंधियों सा
बढ़ा चल
हो आरूढ़ वरूण वक्ष पर
नाच-नाच-नाच महाकाल के फन पर।
निहार मत बणी-ठणी
चार की दिन की पावणी
पक गई फसल थाम
हंसिया कर लावणी
लिख नाम
अपना अमिट
मिट्टी के कण-कण पर
नाच-नाच-नाच महाकाल के फन पर।
किरण-किरण बीमार है
पसरा अन्धकार है
कौन गाए भैरवी
कि मौन गीतकार है
पूरब से
लाल-लाल
चढ़े सूर्य गगन पर
प्रहार कर
प्रहार कर
दुर्दान्त के चरण पर
नाच-नाच-नाच महाकाल के फन पर।
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कविता मन को भायी
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