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Thursday, December 27, 2012

ये इन्द्रियां




सुबह हो/ या शाम
सनसनाता झुलसाता दिन हो/ या ठंडी रात
अकेला हो मन/ या कोई हो साथ
हर पल/ हर क्षण
कान खड़े किए/ श्‍वान सी घाणेन्द्रियां
कुलबलाती/ दसों इंद्रियां
बतियाती रहती है/ आपस में
बात-बेबात
जब भी होता है/ अनायास कोई खड़का
झन-झनाहट करता/ गिरता है कोई बर्तन रसोई में
खदबदाता है कुछ/ बटलोई में
लगता है/ तड़का 
या फिर गली में/ भौंकता है कुत्‍ता
उचकाकर/ गदरदनें
अधखुली खिड़कियों से
झांकती है/ आंकती हैं
धूप अंधेरे में/ मिचमिचाती आंखों से
बांचती है/ अपने भीतर का डर
फुसफुसाकर/ दुबक जाती है
जैसे कि तूफान के भय से
रेत में छुपा लेता है/ गर्दन शुतुरमुर्ग
बजाय तन कर/ खुद अस्‍त्र बन
सामना करने तूफान का।

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