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Sunday, September 16, 2012

राजस्‍वला-सन्धियां


बन्‍धु रे,
कोई वजूद नहीं
आदमी और आदमी के खून का,
यहां हर सुबह
अपने ही रक्‍त से सना
''पेड''
फैंक दिया जाता है
बेझिझक सरेआम अछूत की तरह
सड़क पर
रजस्‍वला स्‍त्री के हाथों।
ऐसे ही किसी शातिर द्वारा
भीड़ भरी सड़क पर
घोंपा जा कर छुरा/कर दिया जाता है
आदमी का खून-
हमारे भीतर कोई सिरहन पैदा नहीं करता,
हम अनजान डर से
अन्‍धे, गूंगे-बहरे हो
दुबक जाते हैं/दड़बों के द्वारा-खिड़कियां बन्‍द कर
और अन्‍धा शासन/पुलिस
समाचार पत्रों में विज्ञप्तियां जारी कर
या फिर सड़क चलते
किसी विकलांग आदमी को पकड़
झूठे को सच्‍चा बना
सन्धि करता है
रजस्‍वला सन्धियों से।
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1 comment:

  1. बेहतरीन....
    उत्कृष्ट रचना...

    सादर
    अनु

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