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Sunday, August 26, 2012

शरद्


कांसों के चंवर डुलाती
सन-बिच्छिया छुम छुमकाती
नीलाभ गगन से धरती पर, उतरी शरद् कपूरी।

उलझा था जो कहीं
श्‍याम घटा के सघन केश में
निकला चांद
धुला-धुला सा दूधिया परिवेश में

करे रसवंती अभिषेक
ढुलते दुग्‍ध-कलश अनेक
लिपे पुते आंगनों नाचती इच्‍छाएं मयूरी।

अल्‍हड़ यौवना सी
पकी-पकी बाजरे की फसल
अलगोजे की धुन में
बुन रही ज्‍यूं सपनों की गजल

निरख जवानी खेल की
महकी खुशबू रेत की,
मुसकायी क्‍वार के धान-सी, बरसों की मजबूरी।

जादू सा है छाया
हर भवन में डोल गई गन्‍ध
रोम-रोम में पुलक
स्‍वरित है, प्रणय गीतों के छन्‍द

रूपायित हुआ मन गेह
गुलाब सी गंधायित देह
दीप जलाती तुलसी बिरवे नीचे, शाम सिन्‍दूरी।
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1 comment:

  1. अल्हड यौवना सी
    पकी पकी बाजरे की फसल
    अलगोजे की धुन में बुन
    रही ज्यूँ सपनों की गजल

    वाह ! बहुत सुन्दर ,लाजवाब पक्तियां

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