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Monday, May 7, 2012

निवेदन

शीर्षकहीन ''अशीर्ष कविताएं'' से स्‍वत: ही जीवन की विद्रूपता स्‍पष्‍ट हो जाती है। जिन्‍दगी के कंकरीले-धरातल पर चलते-चलते जो छाले मुझे टीसते चले गए हैं, वे सभी इन रचनाओं में प्रतिबिम्बित हैं। 

ये मेरी मान-संतान न तो किसी वाद से जुडी है और न इनपर किसी वाद की छाप ही है। मुझे अपनों-परायों जिन्‍होंने भी जो भी दिया, वह मेरी चेतना नेअन्‍तस की मथनी में बिलो कर जैसा था वैसा नवनीत सा रख दिया है। 

आप अपनी-अपनी परख की आँच पर तपा कर धूत बनाने के पूर्ण हकदार हैं। 

--रघुनाथसिंह ''यादवेन्‍द्र''

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