हे मां,
तुम्हारी
शस्य-श्यामला
सुमनों से चित्रांकित
अल्पना को,
नीलाभ गगन में
पंख पसारे उड़ती
विहंगों की
मुक्त कल्पना को,
कुलांचे भरती मृग
छौनों की,
निश्छल भावना को,
अक्षम अहम् की
तुष्टि के लिए
मेरी आदिम उग्रता ने
रक्त रंजित कर दिया।
हे मातृ भूमि,
तुम्हारी
गंगा-यमुना/चंचल सरिताओं
के
अमृत तुल्य जल से
मेरे कितने ही
पितरों का उद्धार हो
गया,
तुम्हारे
इस सब उपकार/आशीष के
लिए
मझे नत मस्तक हो
प्रणाम करना था
किन्तु मेरी बौनी
पंगु कल्पना
तुम्हारा निराकार
नीलिमा की ओर
मुट्ठियां भर भर
बारूद उछालती रही
कितना कृतघन हूं मैं....
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