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Friday, September 14, 2012

रिसता हुआ घट

मेरे पंखों में शक्ति थी
यौवन की उमंग थी
मैंने तब
तिनका-तिनका जोड़
बनाया था घोंसला
घोंसले की
एक धरियानी थी।

सुबह दफ्तर जाते
एक पुलक
द्वार तक साथ होती थी
शाम दफ्तर से लोटते
एक पुलक, ललक होती थी
अपने बच्‍चों की।

आज बच्‍चे
अपने-अपने सुख के
पर्वतों पर चले गए 
बच्‍ची उड़ गई चिडि़या की तरह  
संगिनी खो गई 
नाती-नातिन की माया में। 

और मैं अकेला, निपट अकेला 
रह गया 
बूंद-बूंद निरन्‍तर रिसता हुआ घट।

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