रेत की नदी
यह मेरे पिता का तीसरा काव्य संग्रह है।
कविता के सन्दर्भ में अपनी ओर से कोई
भूमिका लिखना नहीं चाहता। यूं कविता हर मनुष्य को अपने जन्म के साथ प्राप्त
होती है, फिर भी यह उस व्यक्ति की अथ्भव्यक्ति व अभिव्यंजना पर निर्भर करती
है कि वह अपने भाव-गुफंन को कैसे बुनता है।
ये कविताएं भाषा की क्लिष्टता, बौद्धिकता
के बोझ से मुक्त, मिट्टी में खेलते अबोध बालक के तुतलाते शब्दों में सपाट-बयानी
भर है। मुझ अकुशल कलाकार की गढ़न, अलंकारिता, काव्यगत-शिल्प का सुख चाहे न दे
पाए, मगर इनकी पारदर्शिता, बोधगम्यता मन के द्वार पर निरन्तर आहट देती रहेगी, क्योंकि
इन कविताओं का जन्म करूणा, वेदना-संवेदना, सौन्दर्य, पिपासा और संचेतना से हुआ
है।
प्रासंगिक उपादानों से संश्लिष्ट अनुभूति
परक इन रचनाओं में सर्वहारा की देह से बहने वाले पसीने की गंध है। वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में सामयिक सामाजिक कड़ुवाहाट, राजनैतिक दोगलेपन की ध्वनि, तो जीवन
में हम जो हाहाकार सुनते हैं, उस कोलाहल की साक्ष्य है। वहीं इन कविताओं में
प्रकृति की गुनगुनाहट, संवेदनशील मानव मन की कोमल भावनाएं यानी इन कविताओं में
पीड़ा, संवेदना, आतुरता, विफलता, निश्छलता परिभाषित हुई है।
ये कविताएं अपने मूल चरित्र में नितान्त
ही मौलिकता लिए हुए संवेदना के धरातल पर उगी कितनी प्राणवान है और आम आदमी से
कितनी जुड़ पाती है, यह सुधि-पाठकों की कृपा पर आश्रित है।
- कुं.संजय सिंह जादौन
आज पेश है इस संग्रह की पहली रचना--
अतृप्त मन
मेरे अन्तस में भर दी, माँ ।
तुमने कितनी छवियां अनन्त
मेरी आशा को गीत दिया,
गीतों को प्रियतर मीत दिया,
गीतों को स्वर देकर तुमने-
रंग दिसे स्नेह से दिग्–दिगंत।
कालिदास की शकुन्तला-सी,
खुजराहो की अमर कला-सी,
चित्रित कर दी तुमने हृदय में-
देकर मुझको जीवन-बअसं।
जीवन में शत-शत आशाएं,
जाग रही है अभिलाषाएं
चाह रहा निश-दिन मन-याचक,
धूप-छांह जिसका नहीं अंत।
बाहों में भर लूं धरा-गगन,
छू लूं प्रकाश की तरल किरण,
सांसों में बजता द्वैत-राग-
त्रिशंकु-सा अधर तन का संत।
सब कुछ पा फिर भी निर्धन है,
कि तृप्ति-अतृप्ति की उलझन है,
अहम को प्लवित करता पल-पल,
जिजीविषाओं का यह महंत।
मेरे अन्तस में भर दी, माँ ।
तुमने कितनी छवियां अनन्त।
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