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Wednesday, October 3, 2012

सूरज का कत्‍ल


बन्‍धु रे,
तुम बहुत भोले हो,
भोले ही नहीं अनाड़ी भी हो,
तभी तो
मदारीनुमा इन शातिर लोगों की
चिकनी चुपड़ी बातों के
सम्‍मोहन से सम्‍मोहित कर
हर बार
रीढ़ की हड्डी सीधी कर
कन्‍धों से बोझ हल्‍का करने के लालच में
अपनी गाढ़े पसीने की कमाई से हाथ धो बैठते हो।

ये जो
हर चौखट पर/बस्तियों के मोड़ पर
अलाव जलाए बैठे हैं
उजाले के नाम पर
अंधेरों की फसल बोते आए हैं।

सत्‍य तो यह है कि
तुम्‍हारे दर्द में भागीदार
ये कभी रहे ही नहीं
इन्‍होंने
हर बार
मौसम के चेहरे पर
कालिख पोती है।

बन्‍धु रे,
तुझे ही
शब्‍दों के अस्‍त्र संभाले
अकेले ही
यात्रा करते रहना है
क्‍योंकि
शातिर लोगों के चक्रव्‍यूह में फंस कर
हर बार
सूरज का कत्‍ल हुआ है।
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