बन्धु
रे !
हमारे
लोकतंत्र में
उपलब्धियों
के नाम पर
फूल नहीं
खिलते
केवल कुछ
एक
घटनाएं
उगती है।
भय में
जीते हैं लोग
चुटकी भर
खुशी के लिए
भेदने
होते हैं
कितने ही
व्यूह।
हमारे
रहनुमा
कर रहे
हैं कुकुरमुत्तों की खेती
वर्णशंकर
बिरादरी प्रसूत रही है
जात से
कुजात,
गांवों
की फसलों का
अर्थशास्त्र
उलटा
पढ़ा जा रहा है शहरों में
और सचमुच
’होरी’
आज भी
तरसता है
मुट्ठी
भर भात को।
बन्धु !
कुछ सोच
तो सही
क्रांति
की बात
क्या
तेरे-मेरे भीतर
ठंडी
बर्फ की जमी नदी है।
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