मेरे काव्य संग्रह
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Saturday, October 13, 2012
रेत का घर
तुतलाते सपने
मासूम आंखों से
आंसू बन ढुलक गए,
मोतिया-बिन्द बन उतर आए
जो भी था अपना
चुटकी भर सुख,
सब डूब गया धुंध में
तलाशते स्वयं को
थक गया, हार गया
मैं
नन्हें पांवों से
बुढि़याते पांवों की यात्रा तक
बनाते-बनाते रेत का घर।
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