मिलते थे जो कि कल
तक बांह पसार गले।
चटक गए रिश्ते,
रिश्तों पे खंजर चले।।
उठा जो आरजूओं का
धुंआ बस्ती से,
खूं का कतरा कतरा यह
अश्कों में ढले।
जिन्दगी सारी हुई यहां
पे धुआं-धुआं,
ख्यालों-ख्वाबों
के पेकर हैं धुन्धले।
सच तो गूंगा यहां छल
बहुत बातूनी,
है छलावों के पग-पग
रेशमी जलजले।
कि हुक्म वही हुक्मरान
वही है प्यादे,
वही है चेहरे, सिर्फ
नाम-पट्ट बदले।
बदलते मौसम के मानिन्द
इनके उसूल,
है रोज मल्बूस
बदलने के सिलसिले।
अन्धेरी गली बस्तियों में, यारों!
कब अलस्सुबह के
खुश्नुमा मन्जर खिलें?
भूल के सारे शिकवे-शिकायत,
हमदम!
फिर सूरज की तरह नई
यात्रा पे चलें।
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