कैसे कैसे
काटे हैं लमहे गिनगिन,
कैसे जीएं
सब सून है पानी बिन।
अन्तर्मन को
खरोंचे दफ्तरी बात,
पल-पल होती
शकुनी मुंशियाना बातें,
सूरज की किरणें
चुभती तन को
फक्क उजले
कागज में छिपे ज्यों
आलपिन।
ऊपर दूर आकाश में
उड़ती चीलें,
नीचे रेतीली
हथैली पे सूखी
झीलें,
धरती चटकी
जैसे चूने की तगार
ऐसे ऐसे
चटकते हैं हमारे
दिन।
अब भी
यहीं कहीं है जीता
होरी
बिन छत काटी
पूस की रातें
निगोरी,
करम जला
जनमा साथ लिए अकाल
खटकता है
मजूरी को कि ‘होरी’
छिनछिन।
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