कांसों के चंवर
डुलाती
सन-बिच्छिया छुम छुमकाती
नीलाभ गगन से धरती
पर, उतरी शरद् कपूरी।
उलझा था जो कहीं
श्याम घटा के सघन
केश में
निकला चांद
धुला-धुला सा दूधिया
परिवेश में
करे रसवंती अभिषेक
ढुलते दुग्ध-कलश
अनेक
लिपे पुते आंगनों
नाचती इच्छाएं मयूरी।
अल्हड़ यौवना सी
पकी-पकी बाजरे की
फसल
अलगोजे की धुन में
बुन रही ज्यूं
सपनों की गजल
निरख जवानी खेल की
महकी खुशबू रेत की,
मुसकायी क्वार के
धान-सी, बरसों की मजबूरी।
जादू सा है छाया
हर भवन में डोल गई
गन्ध
रोम-रोम में पुलक
स्वरित है, प्रणय
गीतों के छन्द
रूपायित हुआ मन गेह
गुलाब सी गंधायित
देह
दीप जलाती तुलसी
बिरवे नीचे, शाम सिन्दूरी।
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अल्हड यौवना सी
ReplyDeleteपकी पकी बाजरे की फसल
अलगोजे की धुन में बुन
रही ज्यूँ सपनों की गजल
वाह ! बहुत सुन्दर ,लाजवाब पक्तियां