घिर
आएंगे नभ में बादल,
जो हठीली
अलकें खोल दो !
प्राण दग्ध
कण्ठ में आ अटके,
और तृषित
मृग मरू में भटके,
जलाओ धन
बीच फुलझडि़यां,
सहसा ही
मतवाली झडि़यां !
आषाढ़
मेघ पुलक से बरसें,
नेह से
तन-मन-प्राण परसें,
निखरे
रूप और काजल का
जो नशीली
पलकें खोल दो !
घिर
आएंगे नभ में बादल,
जो हठीली
अलकें खोल दो !
करो शीष
वरद जलधर छांह,
गही शीतल
पुरवा की बांह,
दीखे
चहुँ ओर सावन हरा,
वरदानों
से हो कलश भरा !
प्यार
नहीं अब तुम यू बांधो,
और
रवि-रश्मि-तीर साधो,
बूंदों
की बाँसुरी छेड़ तुम,
नव-पुलक
से रस-रंग घोल दो !
घिर
आएंगे नभ में बादल,
जो हठीली
अलकें खोल दो !
सहकर ताप
बिलखी-बिसूरी,
मन की
इच्छाएं-कर्पूरी,
नभ के
बादल अपने-से लगे,
प्राणों
में प्रणयति-गीत जगे !
गूँजा
वन-उपवन पिक-स्वर से,
आलिंगन
को चपला तरसे,
ओ, वरूणा
! अनुबन्ध
जलीली
खोल अधर
मदिर बोल दो !
घिर
आएंगे नभ में बादल,
जो हठीली
अलकें खोल दो !
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बहुत ही भावपूर्ण रचना ... आभार
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