आंखों के मथुरा-वृन्दावन
उग आए हैं बूढ़े बबूल ।
चुक गया दूध-दही-माखन,
रीती मटकी है, चुन ग्वालिन,
तलाशते संशयों के कंस-
यशोदा का घर-द्वार आँगन ।
न जाने कहाँ मुरली-मोहन,
उदास है कि यमुना का कूल।
शंकित हैं मित्रता निर्धन की,
स्याह हुई सुधियां बचपन की,
ठगा-ठगा सा खड़ा सुदामा,
ख्डि़की तक न खुलती सदन की ।
संकुचित मन हो गया उपवन,
सूख गए सन्दर्भों के फूल ।
मौसम में बुझे-बुझे पलाश,
बीमार हल्दिया-अमलतास,
लंगड़ा पथ है अन्धा गांव -
चुका जहां आंखों का उजास ।
कोडि़या गए रंगीन स्वप्न,
चन्दनी-इच्छाएं हुई धूल ।
धर्म, कि राजनीति में बदला,
रहा न मनुज कर्म का उजला,
निगल बेगुनाह मछलियां -
प्रतिष्ठित हुआ पद पर बगुला ।
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