इन्ही
श्वास उर्मियों में उछलते गिरते प्रतिक्ष,
इन्ही
घनों में स्वप्न शून्य-सा रोता चातक मन,
इन्हीं
खगों-सी मुक्त कल्पना में कवि की स्वर-नहरी
कर देती
मस्त इन्हीं लताओं-सी पुलकित तन-मन।
मेरे
जीवन में संचित है उत्थानप-तन,
मेरे
मानस-पट पर अंकित हास-रुदन ।।
घोर तमिस्त्रा
में तारों के मणि-दीपक मुस्काते,
दूर कहीं
बांसों के वन में बंसी के स्वर गाते,
जल उठती
ज्वाला बुझती सहसा, अश्रु बरस जाते,
तो वर
देते कवि के गीत अधर पर अकुलाते।
मेरे कर
में बंधा सृष्टि का प्रजल-सृजन,
स्वर
में बंधी जागरण की अभिनव गर्जन।।
मेरे कदमों
की आहट पर पर्वत शीष झुकाते,
मैं
नि:शंक बढ़ा चलता निज पथ पर हंसते-गाते,
बुद्बुद्
मेरे मन के मीत, नहीं मेरे तो गीत
सागर की
लहरों पर अम्बर पर मचल लहराते।।
मेरे स्वर
में गूंज रही नवयुग की जागृत धड़कन।
मेरे
साहस में अंगड़ाई लेता जन-जन का मन।।
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