फिर से सीमान्त पर
बे मौसम
रेत गरमाने लगी है
फिर से आदमी के
कच्चे गोश्त की
तलाश में
उड़ने लगी है
आकाश में चीलें।
सुना है,
कुछ उन्मादी लोग
मुट्ठियों में बारूद
भर
केसरिया हवाओं में
उछाल रहे है।
फिर से,
फूलों के गांव में
केसर-क्यारियों में
बिखरे मकरन्द को
खाने
दौड़ी आ रही है
चीटियां।
दोस्त
अक्सर ऐसा होता है
किस अनचाहा
युद्ध-बोध
मेरी चेतना को सौंप
जाता है
पिछली नीम सी कड़वी
यादें।
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