एक के
बाद एक
अनगिन
अंधेरी
सुरंगों में
नहीं
देता है दिखाई
खौफ से
कहीं
छुपा है सूर्य भी,
अंधेरे
की चोट पर चोट
सहते-सहते
सुन्न
हो गए है मस्तिष्क,
चुकता जा
रहा है
जुझारू
सामर्थ।
यहां हर
रीड़ की हड्डी
कमान हुई
जा रही है
या
लिजलिजे केंचुए की तरह
सुरंगों
के उस पार
रोशनी की
असफल
तलाश में
रैंग रहे
हैं
हम।
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