बूढ़ी होती नसों में
जीने की आकांक्षा
प्रेत बन कर
धरती और आकाश के बीच
भटक रही है
और जवान नसों में
खौलता खून
मुट्ठियों में
भींच लेना चाहता है
मानसून।
दो ध्रुवों के
संघर्ष का
क्या हो परिणाम
कोई नहीं जानता,
हर कोई
हवाओं में मुट्ठियों
तान-तान कर
बन जाना चाहता है
इतिहास,
इनमें से
कोई नहीं चाहता
अपनी-अपनी पीक के
निशानों पर
पराजय के झण्डे
गाड़ना।
गर्म तपती रेत पर
नंगे बदन
छालों को सहेजता देश
शून्य में लटका है,
ऐसे में
कौन, कैसे करे
स्वतंत्रता का आन्दोलन
?
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