फिजूल
तेरा दु:खी होना
कि शरीर से
एक-एक बूंद खून निचोड़ कर
पैदा की फसलें,
भूख से
पपड़ाए होठों पर
चुटकी भर
बसन्ती-धूप नहीं धर पाई।
फिजूल
तेरा पछताना
कि क्यों
फबुनाए साहूकार की
मक्कार मुस्कान के
स्वर्ण-मारीची आश्वासन में
तू
सिर झुकाए
सलाम में
कमान होता गया।
फिजूल
तेरा सोचना
कि मोटी खाल वाले
ये शिखंडी
तेरे सूखे ठूंठ को
दिल्ली से खून ला कर
सरसब्ज कर पाएंगे ?
बन्धु रे !
रीढ़ की हड्डी सीधी कर
'तंत्र' को 'लोक' का अर्थ समझा,
तब कहीं
तेरा पुरुषार्थ
सार्थक होगा।
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रीढ़ की हड्डी सीढ़ी कर
ReplyDeleteतंत्र को लोक का अर्थ समझा
बहुत अच्छी पंक्ति और रचना |
आशा
लोकतन्त्र है नाम का, नहीं लोक का तन्त्र।
ReplyDeleteनेताओं के हाथ में, खेल रहा यह यन्त्र।।