कोई एक कुर्सी के लिए
सौंप देता मैं
अगर, स्वयं अंधेरों को।
बन्द कर लिफाफे में
चरित्र को भेज देता कहीं दूर
पत्नी की मांग में भरता
किसी और नाम का सिन्दूर।
सच ,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
अगर,
मुँह मोड़ कर हो जाता खड़ा
देखकर उतरते सेवेरों को।
औढ़ आयातित मुस्कान
साथ ले साकी ओ जाम
पर्दों के पीछे बन्द कक्षों में
होती हर रंगीन शाम।
सिर्फ
उनके एक सुख के लिए
कहता गुलाब अगर कनेरों को ।
सच,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
सौंप देता मैं
अगर, स्वयं अंधेरों को।
सौंप देता मैं
अगर, स्वयं अंधेरों को।
बन्द कर लिफाफे में
चरित्र को भेज देता कहीं दूर
पत्नी की मांग में भरता
किसी और नाम का सिन्दूर।
सच ,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
अगर,
मुँह मोड़ कर हो जाता खड़ा
देखकर उतरते सेवेरों को।
औढ़ आयातित मुस्कान
साथ ले साकी ओ जाम
पर्दों के पीछे बन्द कक्षों में
होती हर रंगीन शाम।
सिर्फ
उनके एक सुख के लिए
कहता गुलाब अगर कनेरों को ।
सच,
कोई एक कुर्सी पा ही जाता
सौंप देता मैं
अगर, स्वयं अंधेरों को।
तुम्हारी ही मर्ज़ी का हुक्म दूंगा
ReplyDeleteताकि
मेरी हुकूमत चलती रहे
आज कल कुर्सी के लिए ही तो यह सब करते है ?
अप मेरे ब्लॉग मे भी पधारे
http://nimbijodhan.blogspot.in/2012/06/blog-post_17.html?spref=fb